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[470] विशेषावश्यकभाष्य एवं बृहद्वृत्ति के आलोक में ज्ञानमीमांसीय अध्ययन
प्रश्न - वेदनीयादि कर्म की स्थिति अधिक और आयुष्य कर्म की स्थिति अल्प होती है, ऐसा नियम किस कारण से हैं, क्या कभी इसके विपरीत नहीं हो सकता की आयुष्य कर्म की स्थिति अधिक और वेदनायादि तीन कर्मों की स्थिति अल्प हो?
उत्तर - नहीं, क्योंकि कर्म बंध का ऐसा ही स्वभाव है। जिससे आयुष्य कर्म वेदनीयादि तीन कर्म के समान अथवा अल्प रहता है, लेकिन अधिक नहीं होता है। आयुष्य का बंधकाल अंतर्मुहूर्त मात्र होता है क्योंकि उसका बंध परिणाम के स्वभाव से अध्रुवबंधी होता है। वेदनीयादि कर्मों का बंध ध्रुवबंधी होने से उनके बंध का परिणाम अधिक होने से अत: वे आयुष्य से अधिक स्थिति वाले होते हैं। केवलीसुमद्घात में जीव आयुष्य से अधिक वेदनीयादि कर्मों का अपवर्तन करके बंध से और स्थिति से आयुष्य कर्म के समान करता है अर्थात् सभी कर्मों की स्थिति अन्तर्मुहूर्त करता है।72
दिगम्बर परम्परा - जैसे गीला वस्त्र फैला देने पर वह जल्दी सूख जाता है, जबकि उतनी शीघ्रता से इकट्ठा किया हुआ वस्त्र नहीं सूखता है। कर्मों की भी वैसी ही स्थिति होती है। आत्म प्रदेशों के फैलाव से सम्बद्ध कर्मरज की स्थिति बिना भोगे घट जाती है। स्थिति बन्ध का कारण जो स्नेहगुण है, वह केवली समुद्घात से कम होने पर शेष कर्मों की स्थिति भी कम हो जाती है। अंत में योग निरोध कर केवली मुक्ति को प्राप्त करते हैं।73 स्वयं संसार की स्थिति का विनाश करने के लिए केवली समुद्घात करते हैं। 74 दोनों परम्पराओं में केवली समुद्घात का प्रयोजन लगभग समान ही है।
प्रश्न-केवली समुद्घात में उदीरणा होती है या नहीं?
उत्तर - तेरहवें गुणस्थान में नाम, गोत्र की तो उदीरणा होती है, वेदनीय की नहीं क्यों कि वेदनीय और आयुष्य की उदीरणा प्रमादी (छठे गुस्थानतक) ही करता है। केवली समुद्घात में स्थिति और अनुभाग कण्डकों का नाश करके वेदनीयादि की क्षपणा की जाती है, किन्तु उदीरणा नहीं है। अत: वेदनीय, आयु आदि की निर्जरा को उदीरणा नहीं समझनी चाहिए। समुद्घात में उदीरणा नहीं बताई गई है। केवली समुद्घात के पूर्व की अवस्था
केवली समुद्घात से पहले केवली आवर्जीकरण करते हैं। आवर्जीकरण का अर्थ अभिमुख करना है अर्थात् आत्मा को मोक्ष की ओर अभिमुख करना आवर्जीकरण है। केवली समुद्घात की इच्छा वाले केवली 'मुझे समुद्घात करना चाहिए' इस प्रकार के उपयोग वाले होते हैं अथवा यथायोग्य कर्मों की उदीरणा आदि करके उदयावलिका में प्रक्षेपण (डालने) रूप शुभ योगों के व्यापार के द्वारा स्वयं को मोक्ष के साथ अभियोजित करना (जोड़ना) आवर्जीकरण कहलाता है। आवर्जीकरण का काल असंख्यात समय प्रमाण अन्तुर्मुहूर्त का है। उसके बाद बिना व्यवधान के केवली समुद्घात करते हैं।5।
सभी केवली भगवान् आवर्जीकरण अवश्य करते हैं। जो केवली भगवान् केवली समुद्घात करते हैं वे पहले आवर्जीकरण करते हैं और उसके बाद केवली समुद्घात करते हैं। इसलिए आवर्जीकरण का दूसरा नाम आवश्यक करण भी है। यहाँ आवर्जीकरण के चार अर्थ अभिप्रेत हैं - 1. आत्मा को मोक्ष के अभिमुख करना, 2. मन, वचन, काया के शुभ प्रयोग द्वारा मोक्ष को आवर्जित (अभिमुख) करना, 3. आवर्जित अर्थात् भव्यत्व के कारण मोक्षगमन के प्रति शुभ योगों 172. आवश्यकि नियुक्ति गाथा 954,956, युवाचार्य मधुकरमुनि, प्रज्ञापना सूत्र, भाग 3, पृ. 286, विशेषावश्यकभाष्य
गाथा 3039 से 3047 173. भगवती आराधना, गाथा 2107-210
174. पंचास्तिकाय, गाथा 153 टीका पृ. 365 175. विशेषावश्यकभाष्य गाथा 3050 से 3051