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विशेषावश्यकभाष्य एवं बृहद्वृत्ति के आलोक में ज्ञानमीमांसीय अध्ययन
3. 1800 योजन - मध्य लोक 1800 योजन का बाहल्य है अर्थात् मेरु पर्वत के समतल भूमिभाग से 900 योजन ऊपर ज्योतिष्क मण्डल के चरमान्त तक और 900 योजन नीचे क्षुल्लक प्रतर तक जहाँ लोकाकाश के 8 रुचक प्रदेश हैं, वहाँ तक मध्य लोक कहलाता है। अर्थात् मनःपर्यवज्ञानी यहाँ तक जानता है, ऐसा कुछ आचार्य मानते हैं, लेकिन ऐसा मानने से नीचे अधोलौकिकग्रामवर्ती संज्ञी पंचेन्द्रिय के भावों को वह मन:पर्यवज्ञानी नहीं जान पायेगा, इसलिए 1900 योजन तक जानता है ऐसा मानना उचित है।186
नंदीसूत्र के मूल पाठ में 'अंतोमणुस्सखित्ते' शब्द आया है, जिसका अर्थ है मनुष्य क्षेत्र के भीतर। जैसे अन्तर्मुहूर्त शब्द से एक मुहूर्त के अन्दर का समय लेते हैं, उसी प्रकार अन्तोमणुस्स क्षेत्र में मनुष्य क्षेत्र के अन्दर अर्थात् अढ़ाई अंगुल कम क्षेत्र का ग्रहण होता है। ऋजुमति मन:पर्यवज्ञानी इस अन्तः मनुष्य क्षेत्र (अढ़ाई अंगुल कम) को तथा विपुलमति मनःपर्यवज्ञानी सम्पूर्ण मनुष्य क्षेत्र को जानता है।
अंगुल का प्रमाण उत्सेधांगुल से लेना चाहिए। मलयगिरि का भी यही कथन है।187 यहां पर चारों दिशाओं में ही अढाई अंगुल अधिक समझना चाहिए। किन्तु ऊपर नीचे नहीं, लेकिन नंदीचूर्णि में और हरिभद्र नंदीवृत्ति में अब्भहियर शब्द से आयाम और विष्कम में अढ़ाई अंगुल और विउलतरं शब्द से बाहल्य का ग्रहण किया है। जिससे ऊपर नीचे भी अढ़ाई अंगुल अधिक लेने से ही बाहल्य अधिक होता है।
दिगम्बर परम्परा के अनुसार - मनःपर्यवज्ञान के विषय की क्षेत्र मर्यादा मनुष्य क्षेत्र है। षट्खण्डागम आदि ग्रंथों में इसके लिए मानुष्योत्तरशैल शब्द का प्रयोग मिलता है।188 दिगम्बर परम्परा में कुछ आचार्य मानुषोत्तरशैल का ऐसा अर्थ घटित करते हैं कि मन:पर्यवज्ञानी जिसके मन को जानता है, वह जीव और उसके चिंतन किये हुए अर्थ मानुषोत्तरशैल के अन्दर के भाग में होना जरूरी है। तो कुछ आचार्यों का मानना है कि वे जीव मानुषोत्तरशैल के अन्दर के भाग में होना चाहिए, लेकिन उसके द्वारा चिंतन किया गया अर्थ (मनोवर्गणा के पुद्गल) लोकांत तक चला गया हो तो भी उसको मन:पर्यवज्ञानी विषय बना सकता है। धवलाटीकाकार ने उक्त दोनों मतों का खण्डन किया है -
प्रथम मत का खण्डन - मनःपर्यवज्ञान को मानुषोत्तरशैल की मर्यादा में बांधना अयोग्य है। क्योंकि यह मर्यादा स्वीकार की जाए तो इसका अर्थ यह होगा कि मानुषोत्तरशैल मन:पर्यवज्ञान में रुकावट करता है, लेकिन मन:पर्यवज्ञान निरपेक्ष ज्ञान है इसलिए ऐसे स्वतंत्र अतीन्द्रिय ज्ञान को मानुषोत्तर पर्वत का व्यवधान हो नहीं सकता है। अतः यहाँ मानुषोत्तरशैल को 45 लाख योजन क्षेत्र का उपलक्षण ही मानना चाहिए।
द्वितीय मत का खण्डन - विपुलमति मन:पर्यवज्ञानी मानुषोत्तरशैल के भीतर रहे हुए जीवों के चिन्तनगत लोकांत तक के अर्थ को जान सकता हो तो लोकांत में रहे हुए (जीवों के) चित्त को वह क्यों नहीं जान सकते हैं? यदि इसको स्वीकार करें तो फिर क्षेत्र की मर्यादा मानुषोत्तरशैल तक नहीं 186. अन्ये त्वाहु अधोलोकस्योपरिवर्त्तिन उपरितनाः, ते च सर्वगतिर्यग्लोकवर्तिनो यदिवा तिर्यग्लोकस्याधो नवयोजनशतवर्तिनो
द्रष्टव्या, ततः तेषामेवोपरितनानां क्षुल्लकप्रतराणां सम्बन्धिनो ये सर्वान्तिमाधस्तनाः क्षुल्लकप्रतराः तान् यावत्पश्यति, अस्मिश्च व्याख्याने तिर्यग्लोकं यावत्पश्यतीत्यापद्यते, तच्च न युक्तम्, अधोलौकिकग्रामवर्तिसंज्ञिपंचेन्द्रिय-मनोद्रव्यापरिच्छेदप्रसंगात्
अथवा (च) अधोलौकिकग्रामेष्वपि संज्ञिपच्चेन्द्रियमनोद्रव्याणि परिच्छिनत्ति। मलयगिरि, नंदीवृत्ति, पृ. 110-111 187. तानि च ज्ञानाधिकारादुच्छायाङ्गुलानि द्रष्टव्यानि। मलयगिरि, नंदीवृत्ति, पृ. 111 188. उक्कस्सेण माणुसुत्तरसेलस्य अब्भंतरादो णो बहिद्धा। - षट्खण्डागम, सूत्र 5.5.76, पृ. 342