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षष्ठ अध्याय - विशेषावश्यकभाष्य में मन:पर्यवज्ञान
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तक के प्रतर क्षुल्लक प्रतर हैं अर्थात् पांच और सात रज्जु के दो प्रतरों को छोड़कर शेष सभी प्रतर क्षुल्लक प्रतर हैं।
तिर्यग् लोक के मध्य में रहे हुए रज्जु प्रमाण वाले सर्वलघु क्षुल्लक प्रतर जो एक रज्जु प्रमाण है वहाँ से लेकर नौ सौ योजन नीचे तक इस रत्नप्रभा पृथ्वी में जितने प्रतर हैं, वे उपरितन क्षुल्लक प्रतर हैं। उनके भी नीचे जहाँ तक अधोलौकिक ग्रामों का सर्वान्तिम प्रतर है वे सब प्रतर अधस्तन क्षुल्लक प्रतर कहलाते हैं। इतने क्षेत्र को ऋजुमति देखता है। मन:पर्यव ज्ञानी उपरितन क्षुल्लक प्रतरों को 900 योजन तक नीचे अधस्तन क्षुल्लक प्रतरों को 1000 योजन तक जानता देखता है।194
वृत्तिकार एवं चूर्णिकार के अभिप्राय से मन:पर्यवज्ञान के ऊँचे-नीचे विषय क्षेत्र के सम्बन्ध में तीन मत प्रतीत होते हैं।
1. 1900 योजन - जिन मन:पर्यवज्ञानियों को जघन्य ऋजुमति मन:पर्यायज्ञान है, वे अपने जघन्य ऋजुमति मन:पर्याय ज्ञान द्वारा मात्र अंगुल के असंख्येय भाग में ही रहे हुए द्रव्य मन के रूपी स्कन्ध जानते देखते हैं तथा जो उत्कृष्ट ऋजुमति मन:पर्यायज्ञानी हैं, वे अपने उत्कृष्ट ऋजुमति मन:पर्याय ज्ञान द्वारा अढ़ाई-अढ़ाई अंगुल कम सहस्र 1000 योजन गहरे 900 योजन ऊँचे (1900 योजन मोटे) क्षेत्र को जानते देखते हैं। आठ रूचक प्रदेशों के समतल प्रतर से 900 योजन नीचे की ओर पुष्कलावती विजय है। यह विजय मेरु के समतल भूमिभाग से 1000 योजन नीचे की ओर अर्थात् मध्यलोक की सीमा (900 योजन)से और सौ योजन नीचे की । दिशा की ओर है। इतने क्षेत्र में रहे हुए संज्ञी पंचेन्द्रिय जीवों के मनोगत भावों को मनःपर्यवज्ञानी प्रत्यक्ष जानते हैं। विपुलमति मन:पर्यवज्ञानी भी इसी क्षेत्र को जानते हैं, पर Fि प्रत्येक दिशा में अढ़ाई-अढ़ाई अंगुल क्षेत्र है अधिक (विपुल) जानते हैं।
समतल 2. 1000 योजन - अधोलोक के
भू भाग
लोक उपरितन भाग में रहे हुए क्षुल्लकप्रतर
रुचक
का मध्य उपरितन कहलाते हैं। वे अधोलोक ग्राम के प्रतर से प्रारंभ करके यावत् तिर्यक् लोक के अन्तिम अधःस्तन प्रतर तक जानने चाहिए तथा तिर्यक् लोक के मध्य भाग से प्रारंभ करके अधोभाग में रहे हुए क्षुल्लक प्रतर अधस्तन कहलाते हैं। इसलिए जो उपरितन 'E
और अधस्तन है उन ऊपरितन अधस्तन को है जितना ऋजुमति देखता है, वह क्षेत्र लगभग BL 1000 योजन का होता है।185
चित्र : मेरुपर्वत के समतल भू भाग के नीचे रहे हुए रुचक प्रदेश 184. मलयगिरि, नंदीवृति का भावार्थ पृ. 110 185. अथवा अधोलोकस्योपरितनभाग-वर्तिनः क्षुल्लकप्रतरा उपरितना उच्चन्ते, ते चाधोलौकिकग्रामवर्तिप्रतरादारभ्य तावदवसेया
यावत्तिर्यग्लोकस्यान्तिमोऽ घस्तनप्रतरः तथा तिर्यग्लोकस्स मध्यभागादारभ्याधोभागवर्तिनः क्षुल्लकप्रतरा अधस्तना उच्चन्ते, तत उपरितनाश्चाधस्तनाश्च उपरितनाधस्तना: तान् यावदृजुमतिः पश्यति। - मलयगिरि, नंदीवृत्ति का भावार्थ, पृ. 110
तिर्यक्
योजन नीचे की ओर तिर्छा लोक 900 योजन ऊपर की ओर तिर्छा लोक
कुल 1800 योजन का तिर्यक् लोक
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