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________________ षष्ठ अध्याय - विशेषावश्यकभाष्य में मनःपर्यवज्ञान [417] उपर्युक्त चर्चा का यह निष्कर्ष है कि ऋजुमति मन:पर्यवज्ञानी व्यक्त मन वाले जीवों से सम्बन्ध रखने वाले या वर्तमान जीवों के वर्तमान मन से संबंध रखने वाले त्रिकालवर्ती पदार्थों को जानता है, अतीत मन और अनागत मन से सम्बन्ध रखने वाले पदार्थों को नहीं जानता है। विपुलमति मनःपर्यवज्ञान के प्रभेद विपुल का अर्थ अनिर्वर्तित और कुटिल अर्थात् दूसरे के मन को प्राप्त हुए वचन, काय और मनकृत अर्थ के विज्ञान से अनिवर्तित अर्थात् जिसकी मति विपुल हो, वह विपुलमति कहलाता है। 128 विपुलमति के छह प्रभेद हैं।29 वे इस प्रकार है - 1.ऋजुमनोगत, 2.ऋजुवचनगत, 3. ऋजुकायगत, 4. अनृजुमनस्कृतार्थज्ञ, 5. अनृजुवाक्कृतार्थज्ञ और 6. अनृजुकायकृतार्थज्ञ। ऋजुमतिज्ञान की शक्ति ऋजु विचारादि तक मर्यादित है, जबकि विपुलमति ऋजु (सरल) और अनृजु (वक्र) दोनों प्रकार के विचारादि को जान सकता है। अकलंक अनुजु का अर्थ अस्पष्ट करते हैं, जिसको धवलाटीकाकार वीरसेनाचार्य संशय और अनध्यवसाय कहते हैं। दोलायमान स्थिति संशय है, अयथार्थ प्रतीति अर्थात् विपरीत चिन्तन विपर्यय है और अर्धचिंतन तथा अचिंतन अनध्यवसाय है। विपुलमति वर्तमान में चिन्तन किये गये विषय को तो जानता ही है, साथ ही चिन्तन करके भूले हुए विषय को भी जानता है, जिसका आगे चिन्तन किया जायेगा, उसे भी जानता है। यह विपुलमति मन:पर्याय ज्ञानी मतिज्ञान से दूसरे के मानस को अथवा मतिज्ञान के विषय को ग्रहण करने के अनन्तर ही मनःपर्याय से जानता है।130 ___ ऋजुमति ज्ञान की तरह यह ज्ञान व्यक्त मन वाले अपने और दूसरे जीवों से सम्बन्ध रखने वाले अर्थ को तो जानता ही है, साथ ही अव्यक्त मनवाले जीवों से सम्बन्ध रखने वाले अर्थ को भी जानता है। चिन्ता में अर्ध परिणत, चिन्तित वस्तु के स्मरण से रहित और चिन्ता में अव्याप्त मन अव्यक्त कहलाता है। इससे भिन्न मन व्यक्त कहलाता है।31 यह ज्ञान भी ऋजुमति ज्ञान की तरह दूसरे जीवों के मन में चिन्तित संज्ञा, स्मृति, मति, चिन्ता, जीवन-मरण, लाभ-अलाभ, सुख-दु:ख, नगर-विनाश, देश-विनाश, जनपद-विनाश, अतिवृष्टि, अनावृष्टि, सुवृष्टि, दुर्वृष्टि, सुभिक्ष, दुर्भिक्ष, क्षेम, अक्षेम, भय, रोग रूप पदार्थों को जानता है। अकलंक ने विपुलमति को विस्तार से समझाया है। 32 इसके अलावा कषायपाहुड, महाबंध, तत्वार्थवृति, धवलाटीका, गोम्मटसार133 आदि ग्रंथों में मनःपर्यवज्ञान के भेद और प्रभेदों का कथन किया गया है। श्वेताम्बर और दिगम्बर परम्परा में मान्यता भेद ऋजुमति और विपुलमति मनःपर्यवज्ञान के प्रभेदों का उल्लेख श्वेताम्बर आगम-ग्रंथों में नहीं हैं। दोनों परम्पराओं में ऋजुमति और विपुलमति के प्रभेदों के सम्बन्ध में अपेक्षा विशेष से मान्यता भेद है। दिगम्बर साहित्य में जो ऋजुमति और विपुलमति मन:पर्यवज्ञान के प्रभेद किये गए हैं, उनके 128. अनिवर्तिता कुटिला च विपुला। वाक्कायमन:कृतार्थस्य परकीयमनोगतस्य विज्ञानात् विपुला मर्तियस्य सोऽयं । ___-सर्वार्थसिद्धि, अध्याय 1.23, पृ. 91 129. जं तं विउलमदिमणपज्जवयणाणावरणीयंणाम कम्मं तं छव्विह उज्जुगमणुजुगं मणोगदं जाणादि, उज्जुगमणुज्जुगं वचिगदं जाणादि, उज्जुगमणुजुगं कायगजुदं जाणादि। - धवलाटीका भाग 13 सूत्र 5.5.70, पृ. 340 130. तत्त्वार्थराजवार्तिक 1.23.10, पृ. 59, धवलाटीका भाग 13, सूत्र 5.5.70, पृ. 340, गोम्मटसार जीवकांड गाथा 440 131. षटखण्डागम पु. 13 पृ. 340 132. तत्त्वार्थराजवार्तिक 1.23, पृ. 58-59 133. कसायपाहुड पृ. 18, महाबंध भाग 1, पृ. 25-26, तत्त्वार्थवृत्ति, पृ. 356, गोम्मटसार जीवकांड गाथा 455-457
SR No.009391
Book TitleVisheshavashyakbhashya ka Maldhari Hemchandrasuri Rachit Bruhadvrutti ke Aalok me Gyanmimansiya Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPavankumar Jain
PublisherJaynarayan Vyas Vishvavidyalay
Publication Year2014
Total Pages548
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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