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विशेषावश्यकभाष्य एवं बृहद्वृत्ति के आलोक में ज्ञानमीमांसीय अध्ययन
3. ऋजुकायगत - जो पदार्थ जिस रूप में स्थित है, उसे अभिनय द्वारा उसी प्रकार दिखलाने वाले काय को ऋजुकाय कहते हैं। मनोगत अर्थ को ऋजुरूप से अभिनय करके दिखाये गये अर्थ को जानने वाला ज्ञान ऋजुकायगत मन:पर्यायज्ञान कहलाता है।
कसायपाहुड एवं षट्खण्डागम के समान ही सर्वार्थसिद्धि, तत्त्वार्थराजवार्तिक, तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक, गोम्मटसार आदि ग्रथों में भी ऋजुमति के लक्षण और भेद का वर्णन प्राप्त होता है।21 ऋजु का अर्थ सरल और स्पष्ट है, अत: उपर्युक्त तीनों भेदों का विषय अनुक्रम से अन्य जीव के स्पष्ट विचार, स्पष्टवाणी और स्पष्टवर्तन से व्यक्त हुआ मनोगत अर्थ है। 22 अन्य जीव के स्पष्ट विचार, वाणी और वर्तन जो विस्तृत हुए हों तो उनको ऋजुमतिज्ञान द्वारा जाना जा सकता हैं।123
ऋजुमतिज्ञान की प्रक्रिया महाबन्ध एवं धवलाटीका में इस प्रकार दी गई है कि मन:पर्यवज्ञानी पहले अपने मतिज्ञान से दूसरे के मन को ग्रहण करता है तथा फिर ऋजुमतिज्ञान से उसके मन में चिन्तित अर्थ को जानता है। ऋजुमति मन:पर्यायज्ञानी दूसरे के मन को ग्रहण कर उसकी संज्ञा (प्रत्यभिज्ञान) स्मृति, चिन्ता, मति आदि को जानता है और व्यक्त मन वाले जीवों के जीवन-मरण, लाभ-अलाभ, सुख-दु:ख, नगर-विनाश, देश विनाश, जनपद विनाश, अतिवृष्टि, अनावृष्टि, सुवृष्टि, दुर्वृष्टि, सुभिक्ष, दुर्भिक्ष, क्षेम, अक्षेम, भय, रोग, उद्भ्रम, इभ्रम या संभ्रम को भी जानता है।124 तत्त्वार्थराजवार्तिक में भी इसी प्रकार का वर्णन है।25।
षट्खण्डागम एवं धवलाटीका में मन:पर्यवज्ञान के पूर्व मतिज्ञान अथवा मन से दूसरे के मन को ग्रहण करने का कथन किया गया है। मतिज्ञान को मन कह देने पर प्रश्न उपस्थित होता है कि मतिज्ञान को मन की संज्ञा कैसे दी जा सकती है? समाधान में कहा गया है कि कार्य में कारण के उपचार से मतिज्ञान को मन की संज्ञा दी जा सकती है। ऋजुमति मनःपर्यवज्ञानी जहाँ मतिज्ञान के द्वारा दूसरों के मानस को ग्रहण करके ही मन:पर्यायज्ञान के द्वारा उसके मन में स्थित अर्थों को जानता है, वहाँ विपुलमति मन:मर्यवज्ञान का यह नियम नहीं हैं, क्योंकि वह अचिन्तित अर्थों को भी विषय करता है। ऋजुमति मन:पर्यवज्ञान द्वारा क्या-क्या जाना जाता है? तो इसका उत्तर है कि "परेसिं सण्णा सदि मदि चिन्ता" अर्थात् दूसरों की संज्ञा, स्मृति, मति, चिन्ता आदि को जानता है।26
__ ऋजुमति मन:पर्यवज्ञानी व्यक्त मन वाले अपने और दूसरे जीवों से संबंध रखने वाले अर्थ को जानता है अर्थात् जिसका मन संशय, विपर्यय और अनध्यवसाय से रहित है उन व्यक्त मन वाले तथा स्व से संबंध रखने वाले अन्य अर्थ को जानता है, परंतु अव्यक्त मन वाले जीवों से सम्बन्ध रखने वाले अन्य अर्थ को जानने में यह ज्ञान समर्थ नहीं हैं। 27
120. कषायपाहुड, गाथा 1, पृ. 18 121. सर्वार्थसिद्धि 1.23 पृ 91, तत्त्वार्थराजवार्तिक 1.23.9, पृ. 58, तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक 1.23.2,3, पृ. 245,
गोम्मटसार जीवकांड गाथा 439, पृ. 665 122. सर्वार्थसिद्धि 1.23, तत्त्वार्थराजवार्तिक 1.23.9, धवलाटीका, भाग 13, सूत्र 5.5.62, पृ. 329 123. तत्त्वार्थराजवार्तिक 1.23.9, पृ. 58 124. महाबंध भाग 1, पृ. 30 125. तत्त्वार्थराजवार्तिक 1.29.9, पृ. 58 126. षट्खण्डागम पु. 13, सूत्र 5.5.63, पृ. 332 से 337 127. किंचि भूओ-अप्पणो परेसिं च वत्तमाणाणं जीवाणं जाणादि णो आवत्तमाणाणं जीवाणं जाणदि। -षट्खण्डागम, पु. 13,
सूत्र. 5.5.64, पृ. 337