________________ [404] विशेषावश्यकभाष्य एवं बृहवृत्ति के आलोक में ज्ञानमीमांसीय अध्ययन अवधिज्ञान और मनःपर्यवज्ञान की अभिन्नता सिद्धसेन दिवाकर आदि कुछेक आचार्य अवधि और मनः पर्याय ज्ञान को अभिन्न मानते हैं। इसके लिए उनके द्वारा प्रस्तुत तर्कों को उपाध्याय यशोविजय ने ज्ञानबिन्दु में प्रस्तुत किया है। 1. बाह्य घटादि अर्थों के आकार के अनुमापक मनोद्रव्य को ग्रहण करने वाला ज्ञान एक विशेष प्रकार का अवधिज्ञान ही है। 2. अप्रमत्त संयत से उत्पन्न होने के कारण यह अवधिज्ञान में ही समाविष्ट होता है। 3. मन:पर्याय ज्ञान का स्वयं का दर्शन नहीं है, इस परिस्थिति में दोनों ज्ञान अभिन्न मानने से मनःपर्यव के लिए उल्लेखित 'पश्यति' को अवधिदर्शन के साथ जोड़ सकते हैं। 4. सूत्र में ज्ञान की संख्या पांच है। लेकिन इस व्यवस्था रूप चार की संख्या होने पर सूत्र के साथ कोई विरोध नहीं आता है। कारण कि जैसे व्यवहार में भाषा के अनेक प्रकार होते हैं, लेकिन निश्चय नय से दो प्रकार की भाषाओं (असत्य, सत्य) का ही प्रयोग होता है। इसी प्रकार निश्चयनय से ज्ञान की संख्या चार स्वीकार करने में कोई विरोध नहीं है। मन:पर्यवज्ञान मात्र संकल्प-विकल्प में परिणत द्रव्यों को ही ग्रहण करता है। इसलिए उसको अवधिज्ञान से पृथक् मानना चाहिए, ऐसा जो दुराग्रह करते हैं तो यह उचित नहीं है क्योंकि इससे द्वीन्द्रियादि जीवों को भी समनस्क मानना पड़ेगा, क्योंकि इष्ट में प्रवृत्ति और अनिष्ट में निवृत्ति हेतु उनमें भी संकल्प-विकल्प होता है। इस प्रकार मन:पर्यवज्ञान की सीमा का विस्तार करना पड़ेगा। जो इष्ट नहीं है। कारण कि एक-दो रुपये से व्यक्ति धनवान नहीं होता है, वैसे ही अल्पमन धारण करने वाले वे जीव समनस्क नहीं हैं। इस प्रकार अनेक दृष्टियों से विचार करने पर विदित होता है अवधि और मन:पर्यय की अभिन्नता स्वीकार करना युक्ति संगत है। इन दोनों की अभिन्नता के सम्बन्ध में अन्य तर्क इस प्रकार हैं - 1. छद्मस्थ समानता - अवधिज्ञान जैसे छद्ममस्थ को होता है, वैसे ही मन:पर्यवज्ञान भी छद्मस्थ को होता है, दोनों में इस अपेक्षा से समानता है। 2. विषय समानता - अवधिज्ञान का विषय जैसे रूपी द्रव्य है, अरूपी नहीं, वैसे ही मन:पर्यवज्ञान का विषय भी मनोवर्गणा के पुद्गल हैं। 3. उपादान कारण - अवधिज्ञान जैसे क्षायोपशमिक है, वैसे ही मन:पर्यव ज्ञान भी क्षायोपशमिक है, इस अपेक्षा से दोनों समान हैं। 4. प्रत्यक्षता - अवधिज्ञान जैसे विकलादेश पारमार्थिक प्रत्यक्ष है, वैसे ही मन:पर्यव ज्ञान भी है। प्रत्यक्ष की अपेक्षा से भी दोनों समान हैं। 5. संसार परिभ्रमण - अवज्ञिज्ञान से प्रतिपात होकर जैसे उत्कृष्ट देशोन अर्द्धपुद्गल परावर्तन 57. नव्यास्तु बाह्यार्थाकारानुमापकमनोद्रव्याकारग्राहकं ज्ञानमवधिविशेष एव, अप्रमत्तसंयमविशेषजन्यतावच्छेदकजाते: अवधित्वव्याप्याया एव कल्पनात् धर्मीति न्यायात्। इत्थं हि 'जानाति पश्यति' इत्यन्य दृशेरवधिदर्शनविषयत्वेनैव उपपत्तौ लक्षणाकल्पनगौरवमपि परिहतं भवति / सूत्रभेदाभिधानं च धर्मभेदाभिप्रयायम्। - ज्ञानबिन्दुप्रकरण, पृ. 18 58. न चैव ज्ञानस्य पञ्चविधत्वविभागोच्छेदात् उत्सूत्रापत्तिः, व्यवहारतश्चतुर्विधत्वेन उक्ताया अपि भाषाया निश्चयतो द्वैविध्याभिधानवन्नयविवेकेन उत्सूत्राभावादिति दिक्। - ज्ञानबिन्दुप्रकरण, पृ. 18 59. निश्चयद्वात्रिंशिका कारिका 17, उद्धृत ज्ञानबिन्दुप्रकरण, पृ. 18