________________ षष्ठ अध्याय - विशेषावश्यकभाष्य में मनःपर्यवज्ञान [403] मतिज्ञानी और श्रुतज्ञानी होते हैं। जो तीन ज्ञान वाले हैं, वे आभिनिबोधिकज्ञानी, श्रुतज्ञानी और अवधिज्ञानी हैं, अथवा आभिनिबोधिकज्ञानी, श्रुतज्ञानी और मन:पर्यवज्ञानी है, जो चार ज्ञान वाले हैं वे आभिनिबोधिकज्ञानी, श्रुतज्ञानी, अवधिज्ञानी और मनःपर्यवज्ञानी होते हैं। जो एक ज्ञान वाले हैं, वे नियमतः केवलज्ञानी हैं।''52 मलधारी हेमचन्द्र ने भी इसी प्रकार का उल्लेख किया है। इस प्रकार आगम से स्पष्ट सिद्ध होता है कि मन:पर्यवज्ञान से पूर्व अवधिज्ञान की आवश्यकता नहीं होती है, क्योंकि बिना अवधिज्ञान के भी मति-श्रुत ज्ञान के बाद मनःपर्यवज्ञान हो सकता है। मनःपर्यवज्ञान और अवधिज्ञान की अभिन्नता एवं भिन्नता अवधिज्ञान और मनःपर्यायज्ञान के सम्बन्ध में जैन परम्परा में दो पक्ष मिलते हैं। आगम, नियुक्ति, नंदी, षट्खण्डागम और तत्त्वार्थ की परम्परा में अवधिज्ञान और मन:पर्यायज्ञान को भिन्न ज्ञान कहा है। जबकि सिद्धसेन दिवाकर आदि कुछ आचार्यों ने दोनों ज्ञानों को अभिन्न माना है। क्योंकि जिस प्रकार अवधिज्ञान का विषय रूपी द्रव्य है वैसे ही मनोवर्गणा के स्कंध भी रूपी द्रव्य हैं। इस प्रकार दोनों का विषय एक ही बन जाता है। इसलिए मन:पर्यवज्ञान अवधिज्ञान का एक अवान्तर भेद प्रतीत होता है। दोनों में अभेद की परम्परा सिद्धांतवादियों को मान्य नहीं थी, इसलिए उमास्वाति ने अवधिज्ञान और मनःपर्यवज्ञान में संभवतः सर्वप्रथम भिन्नता के कारण दिए। उन्होंने विशुद्धि, क्षेत्र, स्वामी और विषय के आधार पर दोनों को भिन्न सिद्ध किया है। आवश्यकनियुक्ति और विशेषावश्यकभाष्य की अपेक्षा अवधिज्ञान और मन:पर्यवज्ञान में समानता और असमानता इस प्रकार से है - 1. दोनों रूपी द्रव्य को जानने वाले हैं, 2. दोनों क्षयोपशमभाव से उत्पन्न होते हैं 3. दोनों प्रत्यक्ष ज्ञान हैं। इस प्रकार अवधिज्ञान और मन:पर्यवज्ञान में समानता होते हुए भी मनःपर्यवज्ञान, अवधिज्ञान से स्वामी आदि के भेद से विशिष्ट है। विषय की अपेक्षा से मनःपर्यवज्ञान मनुष्य क्षेत्र अर्थात् ढाई द्वीप में रहे हुए सन्नी पंचेन्द्रिय जीवों के मन में चिंतन किए गए अर्थ को जानता है, लेकिन इस क्षेत्र से बाहर रहे हुए प्राणियों के द्वारा चिंतन किए गये अर्थ को नहीं जान पाता है। मनःपर्यवज्ञान गुणप्रत्यय होते हुए भी क्षमा आदि से विशिष्ट गुणों से युक्त ऋद्धि प्राप्त अप्रमत्त चारित्र वाले संयत को ही होता है, अन्य को नहीं। इसी प्रकार अन्य आचार्यों ने अवधिज्ञान और मन:पर्यवज्ञान में अभिन्नता-भिन्नता को सिद्ध किया है, जिसका वर्णन इस प्रकार है - 52. जीवा णं भंते ! किं नाणी, अन्नाणी? गोयमा ! जीवा नाणी वि, अन्नाणी वि। जे नाणी ते अत्थेगतिया दुन्नाणी, अत्थेगतिया तिन्नाणी, अत्थेगतिया चउनाणी, अत्थेगतिया एगनाणी। जे दुन्नाणी ते आभिणिबोहियनाणी य सुयनायी य। जे तिन्नाणी ते आभिणिबोहियनाणी सुयनायी ओहिनाणी, अहवा आभिणिबोहियनाणी सुयनायी मणपज्जवनाणी। जे चउणाणी ते आभिणिबोहियनाणी सुयनायी ओहिणाणी मणपज्जवणाणी। जे एगनाणी ते नियमा केवलनाणी। -भगवतीसूत्र, शतक 8, उद्देशक 2, पृ. 254-255 53. य यतः श्रेणिद्वये वर्तमानानामवेदकानामकषायाणां च केषांचिदवधिज्ञानमुत्पद्यते, येषां चानुत्पन्नावधिज्ञानानां मति-श्रुतचारित्रावतां प्रथममेव मनःपर्यायज्ञानमुत्पद्यते, ते मन:पर्यायज्ञानिनोऽपि केचित् पश्चादवधिज्ञानस्य प्रतिपत्तारो भवन्ति। - विशेषावश्यकभाष्य, मलधारी हेमचन्द्र बृहद्वृत्ति, गाथा 777-778, पृ. 331 54. प्रार्थनाप्रतिघाताभ्यां चेष्टन्ते द्वीन्द्रियादयः / मनःपर्यायविज्ञानं युक्तं तेषु न चान्यथा। - निश्चयनय द्वात्रिंशिका, श्लोक 17 55. विशुद्धिक्षेत्रस्वामि-विषयेभ्योऽवधिज्ञानः पर्याययोः / तत्त्वार्थधिगम सूत्र 1.26, तत्त्वार्थराजवार्तिक सूत्र 1.25 56. आवश्यकनियुक्ति, गाथा 76, विशेषावाश्यकभाष्य, गाथा 810-812