________________ पंचम अध्याय - विशेषावश्यकभाष्य में अवधिज्ञान [395] (5) श्वेताम्बर परम्परा के अनुसार पर्याय वृद्धि में द्रव्यादि की वृद्धि भजना से होती है। दिगम्बर परम्परा के अनुसार पर्याय की वृद्धि में द्रव्य की भी वृद्धि नियम से होती है। (6) आवश्यकनियुक्ति के अनुसार अवधिज्ञानी तैजस शरीर से प्रारंभ होकर भाषाद्रव्य तक जितने जितने द्रव्यों को देखता हुआ आगे बढ़ता है, वह क्षेत्र से असंख्यात द्वीप-समुद्र और काल से पल्योपम का असंख्यातवां भाग उत्तरोत्तर अधिक देखता है। षट्खण्डागम के अनुसार जो अवधिज्ञानी तैजस शरीर के पुद्गलों को देखता है, तो वह काल से भव पृथक्त्व (2-9 भवों) को देखता है, उस भव पृथक्त्व के मध्य किसी भव में यदि उसे अवधिज्ञान उत्पन्न हुआ हो तो उस अवधिज्ञान से दृष्ट पूर्वभवों की उसे स्मृति होती है, उनका साक्षात् नहीं होता। (7) विशेषावश्यकभाष्य के अनुसार औदारिक आदि आठ वर्गणाएं जीव के ग्रहण योग्य हैं तथा ध्रुव आदि चौदह वर्गणाएं जीव के अग्रहण योग्य हैं, इस प्रकार कुल वर्गणाएं 22 होती है। जबकि गोम्मटसार में 23 प्रकार की वर्गणा बताई है। श्वेताम्बर परम्परा में मान्य आठ वर्गणाओं में से पांच ही मान्य है। औदारिक, वैक्रिय और आहारक इन तीन वर्गणाओं के स्थान पर एक आहार वर्गणा कही गई है और श्वासोच्छ्वास वर्गणा को नहीं लिया गया है। इस प्रकार आठ की अपेक्षा पांच ही वर्गणा गिनी है। (8) श्वेताम्बर परम्परा में परमावधिज्ञान ही अवधिज्ञान की चरम सीमा है। जबकि दिगम्बर परम्परा में परमावधि के बाद अवधिज्ञान की सर्वोत्कृष्ट सीमा सर्वावधि है (9) प्रज्ञापनासूत्र के तेतीसवें पद (अवधिपद) में प्रत्येक नरक के नैरयिकों का जघन्य अवधि प्रमाण स्वयं के उत्कृष्ट प्रमाण से आधा गाऊ (1/2) कम है, जैसे कि पहली नारकी का जघन्य साढ़े तीन गाऊ और उत्कृष्ट चार गाऊ, इस प्रकार अन्य नारकी का भी समझ लेना चाहिए। लेकिन ऊंचा-नीचा और तिरछे का खुलासा नहीं किया है। लेकिन अकलंक ने स्पष्ट किया है कि यह प्रमाण नीचे की ओर का है। ऊपर की ओर का प्रमाण स्वयं के नरकावास के अंत तक है और तिरछा प्रमाण असंख्यात कोड़ाकोड़ी योजन का है। लेकिन इस प्रमाण में जघन्य और उत्कृष्ट का भेद नहीं किया है। (10) श्वेताम्बर ग्रन्थों में नारकी कितने काल का भूत-भविष्य जानता है, इसकी स्पष्टता नहीं है। जबकि धवलाटीका में काल प्रमाण की स्पष्टता करते हुए कहते हैं कि रत्नप्रभा नारक का उत्कृष्ट कालमान मुहूर्त में एक समय अधिक है और बाकी की छह पृथ्विओं के नारकों का उत्कृष्ट काल प्रमाण अन्तर्मुहूर्त है। (11) श्वेताम्बर परम्परा में भवनपति, वाणव्यंतर और ज्योतिषी के अवधिक्षेत्र के ऊँचे, नीचे और तिरछे क्षेत्र का स्पष्ट उल्लेख नहीं किया गया है। दिगम्बर परम्परा में अकलंक ने इसका स्पष्ट उल्लेख किया है। (12) श्वेताम्बर परम्परा में सौधर्म आदि बारह देवलोकों का ही उल्लेख है, जबकि दिगम्बर परम्परा में सोलह देवलोकों का उल्लेख है। (13) आवश्यकनियुक्ति में नवग्रैवेयक के विभाग करके अवधि का विषय बताया है, जबकि षट्खण्डागम में नवग्रैवेयक का विषय एकसाथ (छठी नारकी तक) ही बताया है।