________________ पंचम अध्याय - विशेषावश्यकभाष्य में अवधिज्ञान 13871 समीक्षण अवधिज्ञान प्रत्यक्ष ज्ञानों में प्रथम ज्ञान है। जो ज्ञान इन्द्रिय और मन की सहायता के बिना सीधा आत्मा से होता है, वह प्रत्यक्ष ज्ञान है। अवधि शब्द का सामान्य अर्थ है, मर्यादा। जो ज्ञान आत्मा से मर्यादा युक्त जाने वह अवधि है। लोक में दो प्रकार के पदार्थ होते हैं - रूपी और अरूपी। अवधिज्ञान की मर्यादा यह है कि इसके द्वारा मात्र रूपी पदार्थों को ही जाना जाता है। अतः जो आत्मा द्वारा द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव की मर्यादा से रूपी पदार्थों को जानता है, वह अवधिज्ञान है। अवधिज्ञान के प्रकारों का क्षेत्र विस्तृत है। इसके प्रकारों का उल्लेख विभिन्न प्रकार से प्राप्त होता है। मुख्य रूप से इसके दो भेद होते हैं - भवप्रत्यय और गुणप्रत्यय। जो अवधिज्ञान जन्म से होता है वह भवप्रत्यय अवधिज्ञान कहलाता है। यह ज्ञान नारकी और देवता में होता है। जो अवधिज्ञान गुण अर्थात् व्रत-प्रत्याख्यान अथवा क्षयोपशम से प्राप्त होता है, वह गुणप्रत्यय अवधिज्ञान कहलाता है। यह अवधिज्ञान मनुष्य और संज्ञी तिर्यंच पंचेन्द्रिय को होता है। इन दो भेदों के अलावा इसके उत्तर भेदों का उल्लेख विभिन्न ग्रंथों में प्राप्त होता है, जिनकी कुल संख्या तेरह है, यथा 1. देशावधि, 2. परमावधि, 3. सर्वावधि, 4. हीयमान, 5. वर्द्धमान, 6. अवस्थित, 7. अनवस्थित, 8. अनुगामी, 9. अननुगामी, 10. सप्रतिपाति, 11. अप्रतिपाति, 12. एक क्षेत्रावधि और 13. अनेक क्षेत्रावधि। विशेषावश्यकभाष्य में चौदह निक्षेपों या द्वारों की अपेक्षा अवधिज्ञान का विस्तार से वर्णन किया गया है, वे द्वार हैं - 1. अवधि, 2. क्षेत्रपरिमाण, 3. संस्थान, 4. आनुगामिक, 5. अवस्थित, 6. चल, 7. तीव्रमंद, 8. प्रतिपाति-उत्पाद, 9. ज्ञान, 10. दर्शन, 11. विभंग, 12. देश, 13. क्षेत्र और 14. गति। इन चौदह द्वारों के बाद पंद्रहवें द्वार के रूप में ऋद्धि का उल्लेख जिनभद्रगणि ने किया है। निक्षेप का सामान्य अर्थ है - रखना या प्रक्षेपण करना। किसी वस्तु या पदार्थ में अर्थ का प्रक्षेपण (रखना) करना निक्षेप कहलाता है। अवधिज्ञान का स्वरूप नाम, स्थापना, द्रव्य, काल, भव और भाव इन सात निक्षेपों के माध्यम से समझाया गया है। क्षेत्र परिमाण की दृष्टि से निक्षेप में अवधिज्ञान का जघन्य क्षेत्र तीन समय के आहारक सूक्ष्म पनक जीव का जितना शरीर (अवगाहना) होता है, उतना ही अवधिज्ञान का विषयभूत जघन्य क्षेत्र परिमाण होता है। अग्निकायिक समस्त जीव सभी दिशाओं में जितने क्षेत्र को व्याप्त करते हैं, अवधिज्ञान का उत्कृष्ट क्षेत्र उतने असंख्यातलोक प्रमाण का होता है। जघन्य क्षेत्र का परिमाण बताते हुए जिनभद्रगणि तथा बृहद्वृत्ति में मलधारी हेमचन्द्र ने पारम्परिक अर्थ को महत्त्व दिया है। जबकि यह अर्थ आगमानुसार नहीं हैं, अतः इनके अर्थ की समीक्षा करके आगमिक मान्यता को पुष्ट किया गया है। अवधिज्ञान का विषय द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव से चार प्रकार का है। उनका स्वरूप संक्षेप में निम्न प्रकार से है - जघन्य से अवधिज्ञानी द्रव्य से और क्षेत्र से अंगुल के असंख्यातवें भाग में रहे हुए रूपी द्रव्यों को देखते हैं। काल से द्रव्य की आवलिका के असंख्यातवें भाग की द्रव्यगत अतीत, अनागत पर्यायों को देखते हैं और भाव से प्रत्येक द्रव्य के चार गुण (एक वर्ण, एक गंध और दो स्पर्श) देखते हैं।