________________ [382] विशेषावश्यकभाष्य एवं बृहद्वृत्ति के आलोक में ज्ञानमीमांसीय अध्ययन जम्बूद्वीप प्रमाण शरीर में व्याप हो सकता है और मनुष्य का विष ढाई द्वीप प्रमाण शरीर में व्याप्त हो सकता है। ये सभी भेद जाति से आशीविष कहलाते हैं। तप अनुष्ठान एवं अन्य गुणों से जो आशीविष की क्रिया कर सकते हैं अर्थात् शापादि से दूसरों को मार सकते हैं, वे कर्म आशीविष हैं। उनकी यह लब्धि आशीविष लब्धि कहलाती है। जीव लब्धि तप-चारित्र आदि अनुष्ठान अथवा दूसरे गुण से बिच्छु, सर्प आदि से जो कार्य साध्य होते हैं, उनको करता है। जैसेकि शाप देकर दूसरे को मार सकते हैं। यह लब्धि तिर्यंच पंचेन्द्रिय, मनुष्य में होती है। जिन मनुष्य को पूर्व भव में ऐसी लब्धि है और वे आयुष्य पूर्ण होने पर सहस्रार देवलोक तक के देवपने में उत्पन होते हैं, तो उनके अपर्याप्त अवस्था में पूर्व भव की शक्ति रहती है अर्थात् जब तक वे देव पर्याप्त नहीं होते, वहाँ तक यह लब्धि उनमें होती है। इसलिए सहस्रार देवलोक तक के अपर्याप्त देव को कर्म से आशीविष कहा है। पर्याप्त देव भी शापादि से दूसरे का नाश कर सकते हैं, तो उस समय उनके आशीविष लब्धि है, ऐसा नहीं मानना, क्योंकि वे ऐसा देवभव के सामर्थ्य से करते हैं, यह सभी देवों में पाया जाता है। धवला के अनुसार अविद्यमान अर्थ की इच्छा का नाम आशिष् है, आशिष् ही विष है जिससे वे आशीविष कहे जाते हैं। उदाहरण के लिए 'मर जाओ' इस प्रकार निकला हुआ वचन व्यक्ति को मारता है, 'भिक्षा के लिए भ्रमण करो' ऐसा वचन भिक्षार्थ भ्रमण कराता है इत्यादि / 60 10. केवली - चार घाति कर्मों (ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, मोहनीय और अन्तराय) का क्षय होने से केवलज्ञान रूप लब्धि प्राप्त होती है। इस लब्धि से युक्त ज्ञानीजन त्रिकालवर्ती सभी रूपी और अरूपी पदार्थों को हस्तामलकवत् स्पष्ट जानते और देखते हैं। 11. मन:पर्यवज्ञानी - इसमें विपुलमति रूप मनःपर्यवज्ञानी का ग्रहण होता है, क्योंकि ऋजुमति लब्धि अलग से दी गई है। बहुत से विशेषों से युक्त वस्तु का विचार ग्रहण करे वह विपुलमति अथवा सैकड़ों पर्याय सहित चिन्तनीय घटादि वस्तुविशेष का विचार ग्रहण करने वाली मति विपुलमति मन:पर्यवज्ञान है। प्रश्न - सामान्य से एक मन:पर्यवज्ञान ही यहाँ कहा होता तो भी चलता, उसी में ऋजुमति और विपुलमति का संग्रह हो जाता है। फिर दोनों का अलग-अलग स्थानों पर कथन क्यों किया गया है? उत्तर - यह शंका सही है, अतिशय ज्ञानियों ने ज्ञान में देखकर विचित्र कारण से सूत्र की रचना की है, ऋजुमतिज्ञान आकर चला जाता है तो विपुलमति नहीं जाता है, यही दोनों में भेद है। केवलज्ञान के बाद विपुलमति कहने का कारण भी यह संभव हो सकता है कि विपुलमति वाले को अवश्य ही केवलज्ञान होता है। यह मत टीकाकारों का है, लेकिन आगमानुसार विपुलमति के बाद उसी भव में केवलज्ञान हो यह आवश्यक नहीं है। केवली मन:पर्यवज्ञानी और पूर्वधरों की ऋद्धि प्रसिद्ध ही है। 12. पूर्वधर - तीर्थंकर परमात्मा तीर्थ की आदि करते समय द्वादशांगी का मूल आधारभूत जो सर्वप्रथम उपदेश गणधरों को देते हैं, वह पूर्व कहलाता है। गणधर उस उपदेश को सूत्र रूप में ग्रंथित करते हैं। पूर्व चौदह होते हैं, जिन्हें दस से चौदह पूर्व का ज्ञान होता है, वे पूर्वधर कहलाते हैं। जिस लब्धि के प्रभाव से पूर्वो का ज्ञान प्राप्त होता है, वह पूर्वधरलब्धि कहलाती है। 13. अर्हन्त - अशोकवृक्षादि आठ महाप्रातिहार्यों से युक्त और इन्द्रादि के भी जो पूज्य होते हैं, वे केवली अर्हन्त (तीर्थंकर) कहलाते हैं। जिस लब्धि के प्रभाव से अर्हन्त की पदवी प्राप्त हो वह अर्हन्त लब्धि कहलाती है। 460. षटखण्डागम पु. 9, पृ. 95