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[374] विशेषावश्यकभाष्य एवं बृहद्वृत्ति के आलोक में ज्ञानमीमांसीय अध्ययन हुआ है । उसके द्वारा मैंने देखा है कि - जीव पुद्गल रूप ही है। कितनेक श्रमण माहन ऐसा कहते हैं कि जीव पुद्गलरूप नहीं है वे मिथ्या कहते हैं। 5. जब मिथ्यात्वी बाल तपस्वी विभंगज्ञान से बाहरी
और आभ्यन्तर पुद्गलों को ग्रहण किये बिना ही पृथक् पृथक् एक और अनेक रूपों का वैक्रिय करते हुए देवों को देखता है। तब उसके मन में विचार उत्पन्न होता है कि मुझे अतिशय ज्ञान दर्शन उत्पन्न हुआ है । उसके द्वारा मैंने देखा है कि - जीव पुद्गल रूप नहीं है। कितनेक श्रमण माहन ऐसा कहते हैं कि जीव पुद्गल रूप नहीं है। वे मिथ्या कहते हैं। 6. जब मिथ्यात्वी बाल तपस्वी विभंगज्ञान से बाहरी
और आभ्यन्तर पुद्गलों को ग्रहण करके अथवा ग्रहण किये बिना ही पृथक् पृथक् अनेक या अनेक रूपों का वैक्रिय करते हुए देवों को देखता है। तब उसके मन में ऐसा विचार उत्पन्न होता है कि मुझे अतिशय ज्ञान दर्शन उत्पन्न हुआ है। उससे मैंने देखा है कि जीव रूपी है । कितनेक श्रमण माहन ऐसा कहते हैं कि जीव अरूपी है। वे मिथ्या कहते हैं। 7. जब मिथ्यात्वी बाल तपस्वी विभंगज्ञान से सूक्ष्म यानी मन्दमन्द वायु से स्पृष्ट कांपते हुए, विशेष कांपते हुए, चलते हुए, क्षुब्ध होते हुए, स्पन्दन करते हुए, दूसरे पदार्थ को स्पर्श करते हुए और दूसरे पदार्थ को प्रेरित करते हुए तथा उन उन परिणामों को प्राप्त होते हुए पुद्गलों को देखता है, तब उसके मन में ऐसा विचार उत्पन्न होता है कि मुझे अतिशय ज्ञान दर्शन उत्पन्न हुआ है। उसके द्वारा मैंने देखा है कि ये सब जीव हैं। कितनेक श्रमण माहन ऐसा कहते हैं कि जीव भी हैं और अजीव भी हैं। वे मिथ्या कहते हैं। उस विभङ्गज्ञानी को पृथ्वीकाय, अप्काय, तेउकाय, वायुकाय ये चार जीव निकाय सम्यक् ज्ञात नहीं होते हैं अर्थात् वह सिर्फ वनस्पति काय को ही जीव मानता है किन्तु पृथ्वीकाय आदि चार काय को जीव नहीं मानता है, इसलिए वह इन चार कायों की हिंसा करता है। 12. देश द्वार और अवधिज्ञान
जिनभद्रगणि ने इसका उल्लेख विशेषावश्यकभाष्य गाथा 766-771 तक किया है।
देश का अर्थ होता है - अंश। इस द्वार के अन्तर्गत यह विचार किया जाएगा कि अवधिज्ञान में अंशत: जाना जाता है या सर्वतः।
आवश्यकनियुक्ति और विशेषावश्यकभाष्य के माध्यम से अवधिज्ञान के अबाह्य और बाह्य क्षेत्र की प्ररूपणा की गई है।27
जैसे दीपक का प्रकाश स्वयं की प्रभामण्डल के बाहर नहीं होता है, वैसे नारकी, देव और तीर्थंकर के अवधिज्ञान की प्रवृत्ति प्रकाशित क्षेत्र के अंदर ही होती है, ऐसा अवधिज्ञान अबाह्य अवधिज्ञान कहलाता है। (गाथा के पूर्वार्द्ध का अर्थ दूसरे प्रकार से भी किया जाता है) नारकी, देवता और तीर्थंकर नियम से अवधिज्ञान वाले होते हैं और वे सभी दिशाओं और विदिशाओं में देखते हैं, लेकिन देश (अंश) से अमुक दिशा और विदिशा में देखते हैं ऐसा नहीं है। तिर्यंच और मनुष्य अवधिज्ञानी होने पर अवधिक्षेत्र को देश (अंश) और सर्व रूप से देखते हैं।28
प्रश्न - नारकी, देवता का अवधिज्ञान आभ्यंतर अवधिज्ञान है और वह उससे सभी दिशा-विदिशा में जानता है, यहाँ दोनों कथन समान हैं, फिर दोनों को अलग-अलग कहने का क्या कारण है?
उत्तर - विशेषावश्यकभाष्य की गाथा 749 में स्पर्धक अवधिज्ञान और असंबद्ध वलयाकार क्षेत्र को जानने रूप अवधिज्ञान रूप दो प्रकार का बताया है। इस प्रकार के अवधिज्ञान वाले साधु आदि अवधि क्षेत्र के अंदर रहते हुए भी स्पर्धक अवधि होने से (बीच-बीच में नहीं देखने से) सभी दिशा427. आवश्यकनियुक्ति गाथा 66 विशेषावश्यकभाष्य गाथा 766-771
428. विशेषावश्यकभाष्य गाथा 766