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________________ पंचम अध्याय - विशेषावश्यकभाष्य में अवधिज्ञान [373] अवधिज्ञान - जिस ज्ञान से रूपी द्रव्यों को विशेष रूप से ग्रहण किया जाता है, वह अवधिज्ञान है । अवधिदर्शन - जो रूपी द्रव्यों को सामान्य रूप से ग्रहण करता है, वह अवधिदर्शन है। विपरीत तत्त्वग्राहिता के कारण मिथ्यादृष्टि का अवधिज्ञान विभंगज्ञान विभंगज्ञान कहलाता है 1426 - प्रस्तुत द्वार में अवधिज्ञान, अवधिदर्शन तथा विभंगज्ञान और कुछ आचार्यों के मत से विभंगदर्शन, ये स्वस्थान में अलग-अलग और एक दूसरे की अपेक्षा परस्थान में भवनपति से लेकर ऊपर के नवग्रैवेयक विमान में रहे हुए देवों तक, जो-जो जघन्य समान स्थिति वाले देव होते हैं उनके अवधिज्ञान- दर्शन और विभंगज्ञान-दर्शन क्षेत्रादि विषय की अपेक्षा परस्पर तुल्य होते हैं। इसी प्रकार मध्यम समान स्थिति वालों के ज्ञान और दर्शन तथा उत्कृष्ट समान स्थिति वाले देवों के ज्ञान-दर्शन भी उसी प्रमाण से तुल्य हैं। यहाँ टीकाकार ने कुछ आचार्यों के मत से विभंगदर्शन का उल्लेख किया है, लेकिन यह आगमानुसार नहीं है, क्योंकि आगमों में चक्षुदर्शन, अचक्षुदर्शन, अवधिदर्शन और केवलदर्शन इन चार दर्शनों का ही उल्लेख प्राप्त होता है। पांचवें विभंगदर्शन का नहीं। अनुत्तर विमानवासी देवों में अवधिज्ञान और अवधिदर्शन होता है, लेकिन विभंगज्ञान रूप अवधि नहीं है। क्योंकि विभंगज्ञान तो मिथ्यादृष्टि के होता है और अनुत्तरविमान के देव तो एकांत सम्यग्दृष्टि होते हैं। इसलिए उनके विभंगज्ञान नहीं होता है । अनुत्तर विमानवासी देवों के अवधिज्ञान का क्षेत्र और काल असंख्यात विषयवाला तथा द्रव्य और भाव से अनंत विषय वाला होता है। समान स्थिति वाले तिर्यंच और मनुष्य के तीव्र-मंदादि क्षयोपशम की विचित्रता से क्षेत्र, काल संबंधी विषय में भी विचित्रता होती है। विभंगज्ञानी के प्रकार स्थानांग सूत्र (स्थान 7) के अनुसार विभंगज्ञान अर्थात् मिथ्यात्व युक्त अवधिज्ञान सात प्रकार का कहा गया है, यथा - 1. जब मिथ्यात्वी बाल तपस्वी विभंगज्ञान से पूर्व, पश्चिम, दक्षिण, उत्तर अथवा ऊपर सौधर्म देवलोक तक देखता है तब उसे ऐसा विचार होता है कि मुझे अतिशय यानी विशिष्ट ज्ञान दर्शन उत्पन्न हुआ है। उस अतिशय ज्ञान के द्वारा मैंने लोक को एक ही दिशा में देखा है। कितनेक श्रमण माहन ऐसा कहते हैं कि पांचों दिशाओं में लोक है जो ऐसा कहते हैं वे मिथ्या कहते हैं । 2. जब मिथ्यात्वी बाल तपस्वी विभंगज्ञान से पूर्व, पश्चिम, दक्षिण, उत्तर अथवा ऊपर सौधर्म देवलोक तक देखता है तब उसे ऐसा दुराग्रह उत्पन्न होता है कि मुझे अतिशय - विशिष्ट ज्ञान दर्शन उत्पन्न हुआ 1 है । मैंने अतिशय ज्ञान द्वारा जाना है कि लोक पांच दिशाओं में ही है । कितनेक श्रमण माहन कहते हैं कि लोक एक दिशा में भी है, वे मिथ्या कहते हैं । 3. जब मिथ्यात्वी बाल तपस्वी विभंगज्ञान से प्राणियों की हिंसा करते हुए, झूठ बोलते हुए, चोरी करते हुए, मैथुन सेवन करते हुए, परिग्रह सञ्चित करते हुए और रात्रिभोजन करते हुए जीवों को देखता है, किन्तु किये जाते हुए पाप कर्म को कहीं नहीं देखता है तब उसे ऐसा दुराग्रह उत्पन्न होता है कि मुझे अतिशय - विशिष्ट ज्ञान दर्शन उत्पन्न हुआ है। मैंने उस विशिष्ट ज्ञान द्वारा देखा है कि क्रिया ही कर्म है और वही जीव का आवरण है । कितनेक श्रमण माहन ऐसा कहते हैं कि क्रिया का आवरण जीव ही है। जो ऐसा कहते हैं वे मिथ्या कहते हैं। 4. जब मिथ्यात्वी बाल तपस्वी विभंगज्ञान से बाहरी और आभ्यन्तर पुद्गलों को ग्रहण करके फुरित्ता फुट्टित्ता उनका स्पर्श, स्फुरण तथा स्फोटन करके पृथक् पृथक् एक या अनेक रूपों का वैक्रिय करते हुए देवों को ही देखता है तब उसके मन में यह विचार उत्पन्न होता है कि मुझे अतिशय ज्ञान दर्शन उत्पन्न आवश्यकचूर्णि भाग 1 पृ. 64 426. तं चेव ओहिणाणं मिच्छादिट्ठिस्स वितहभावगाहित्तणेणं विभंगणाणं भण्णत्ति । -
SR No.009391
Book TitleVisheshavashyakbhashya ka Maldhari Hemchandrasuri Rachit Bruhadvrutti ke Aalok me Gyanmimansiya Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPavankumar Jain
PublisherJaynarayan Vyas Vishvavidyalay
Publication Year2014
Total Pages548
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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