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[12] विशेषावश्यकभाष्य एवं बृहद्वृत्ति के आलोक में ज्ञानमीमांसीय अध्ययन
नियुक्तिकार की विशेषता है कि वे पहले व्याख्येय विषय के द्वार निश्चित कर देते हैं और तत्पश्चात् एक-एक द्वार का स्पष्टीकरण करते हैं। द्वारों में विशेषत: अनेक स्थल ऐसे हैं जहाँ नामादि निक्षेपों का आश्रय लिया गया है। व्याख्येय शब्द के पर्यायवाची शब्द अवश्य लिखे जाते हैं और शब्दार्थ के भेदों-प्रकारों का भी उल्लेख किया जाता है। इन सब बातों के परिणामस्वरूप अत्यन्त संक्षेप में वस्तु सम्बंधी सभी ज्ञातव्य बातें आवश्यक विस्तार के बिना ही बताई जा सकती हैं।
आचार्य भद्रबाहु शब्दों की व्यत्पुत्ति अर्थ-प्रधान और शब्द-प्रधान दोनों प्रकार से करते हैं। यहां प्राकृत भाषा के शब्द व्याख्येय हैं, उनकी व्युत्पत्ति करते हुए आचार्य संस्कृत-धातुओं से चिपके नहीं रहते, वे प्रयत्न करते हैं कि शब्द को तोड़कर किसी भी प्रकार प्राकृत शब्द के आधार पर ही व्युत्पत्ति की जाए और उससे इष्ट अर्थ की प्राप्ति की जाए। इसके उदाहरण के लिए 'मिच्छा मि दुक्कडं'51 की नियुक्ति द्रष्टव्य है, जो इस प्रकार है - 'मिच्छा मि दुक्कडं' इस पद में छह अक्षर हैं। उनमें 'मि' का 'मृदुता', 'छा' का 'दोषाच्छादन', 'मि' का 'मर्यादा में रहते हुए', 'दु' का 'दोषयुक्त आत्मा की जुगुप्सा', 'क' का किया गया दोष' और 'ड' का 'अतिक्रमण' अक्षरार्थ करके इस प्रकार से यह अर्थ सूचित किया है- 'नम्रता पूर्वक चारित्र की मर्यादा में रह कर दोष निवारण के निमित्त मैं आत्मा की जुगुप्सा करता हूँ और किये हुए दोष का इस समय प्रतिक्रमण करता हूँ।' इसी प्रकार आचार्य ने 'उत्तम' शब्द की जो व्युत्पत्ति की है वह मनस्वी होने के साथ-साथ आध्यात्मिक अर्थ-युक्त होने के कारण रोचक प्रतीत होती है। ऐसे अन्य अनेक उदाहरण दिये जा सकते हैं। आवश्यक नियुक्ति की विषयवस्तु
अंगों में आचारांग का क्रम सर्वप्रथम है, तथापि आचार्य ने गणधर-कत सम्पूर्ण श्रत के आदि में सामायिक का तथा अन्त में बिन्दुसार का उल्लेख कर लिखा है कि श्रुत-ज्ञान का सार चारित्र है या चारित्र का सार निर्वाण है। आचारांग के स्थान पर सामायिक को प्रथम क्रम देने का कारण यह प्रतीत होता है कि, अंग-ग्रंथों में भी जहाँ जहाँ भगवान् महावीर के श्रमणों के श्रुतज्ञान सम्बंधी अध्ययन का उल्लेख है, उन स्थलों पर प्रायः उल्लेख है कि वे अंगादि आगमों से भी पूर्व सामायिक का अध्ययन करते थे। इसी अपेक्षा से आचार्य भद्रबाहु ने आवश्यक सूत्र को गणधर-कृत माना है। सामायिक आवश्यक सूत्र का प्रथम अध्ययन है। अतः आचार्य भद्रबाहु ने नियुक्तियों के प्रारंभ में सर्वप्रथम मत्यादि पांच ज्ञानों का विस्तार से वर्णन किया है। टीकाकारों ने ज्ञान की मंगलरूप में सिद्धि की है। पांच ज्ञान में भी सर्वप्रथम आभिनिबोधिक ज्ञान के अवग्रह, ईहा, अवाय और धारणा इन चार भेदों का वर्णन किया गया है। अन्य दार्शनिकों द्वारा मान्य शब्द अमूर्त और चक्षुइन्द्रिय प्राप्यकारी है, इसका खण्डन किया गया है। इसके पश्चात् गति, इन्द्रिय आदि द्वारों से आभिनिबोधिक ज्ञान के स्वरूप की चर्चा की गई है। श्रुतज्ञान का वर्णन करते हुए बताया गया है कि लोक में जितने भी अक्षर हैं और उनके जितने भी संयुक्त रूप बन सकते हैं उतने ही श्रुतज्ञान के भेद हैं। लेकिन इनका वर्णन सम्भव नहीं है, अतः इन सभी का समावेश अक्षर, संज्ञी आदि चौदह भेदों में किया गया है। अवधिज्ञान का वर्णन करते हुए इसके भेदों की चर्चा की है। स्वरूप, क्षेत्र आदि चौदह निक्षेपों एवं नाम, स्थापना आदि सात निक्षेपों से भी अवधिज्ञान की चर्चा हो सकती है, अत: आचार्य ने इन निक्षेपों का विस्तार से वर्णन किया है। मन:पर्यवज्ञान और केवलज्ञान पर प्रकाश डाला है।
51. विशेषावश्यकभाष्य, गाथा 686-687 53. गणधरवाद, प्रस्तावना पृ० 24-25
52. आवश्यक नियुक्ति, गाथा 1100 54. आवश्यक नियुक्ति, गाथा 93