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________________ [340] विशेषावश्यकभाष्य एवं बृहवृत्ति के आलोक में ज्ञानमीमांसीय अध्ययन द्रव्य को भी जानता देखता है। द्रव्य के अनुसार ही क्षेत्र, काल और भाव को भी विषय के अनुसार जानता है। षट्खण्डागम में भी ऐसा ही उल्लेख है।30 नंदीसूत्र में 'दीवसमुद्दा उ भइयव्वा' अर्थात् संख्यात काल देखने वाला संख्यात द्वीप-समुद्र गिनती से संख्यात या असंख्यात हो सकते हैं। जैसे किसी तिर्यच को जम्बूद्वीप से आगे के संख्यात द्वीप समुद्रों में असंख्यात काल तक अवधिज्ञान हुआ, वह कदाचित् एक द्वीप या समुद्र को भी देखता है, किन्तु उसका क्षेत्र असंख्यात योजन जितना हो जाता है। स्वयंभूरमण द्वीप या समुद्र का भी वह एक देश ही देखता है। इसलिए भजना से कहा है। अकलंक के अनुसार तिर्यंचों को देशावधिज्ञान ही होता है, जिसका उत्कृष्ट क्षेत्र प्रमाण असंख्यात द्वीप समुद्र है और काल प्रमाण असंख्यात वर्ष है। यहाँ तक क्षायोपशमिक अवधिज्ञान का वर्णन हुआ 32 नारकी नारकी के अवधिज्ञान का प्रमाण आवश्यक नियुक्ति के अनुसार जघन्य एक गाऊ और उत्कृष्ट योजन प्रमाण है। जघन्य एक गाऊ सातवीं नारकी में और उत्कृष्ट पहली नारकी में चार गाऊ (एक योजन) देखता है। षट्खण्डागम और धवला में भी ऐसा ही उल्लेख है।33 आवश्यकनियुक्ति में सामान्यतः नारकी के जघन्य अवधिज्ञान का प्रमाण नहीं बताया, लेकिन प्रज्ञापनासूत्र34 के 33वें (अवधिपद) में इसका उल्लेख प्राप्त होता है। जिनभद्रगणि कहते हैं कि यहाँ जो जघन्य प्रमाण गव्यूति का उल्लेख है, वह सातों प्रकार के नारकी के उत्कृष्ट अवधिज्ञान का प्रमाण बताया है। मलधारी हेमचन्द्र ने टीका में प्रत्येक नारकी के जघन्य और उत्कृष्ट अवधिज्ञान के क्षेत्र का उल्लेख किया है 35 अतः प्रत्येक नरक के नैरयिकों का जघन्य अवधिज्ञान प्रमाण स्वयं के उत्कृष्ट प्रमाण से आधा गाऊ (1/2) कम है, जिसे नीचे चार्ट में दिखाया गया है। मलयगिरि ने भी इसका स्पष्टीकरण दिया है। षट्खण्डागम में इस प्रकार नरक के अवधिज्ञान का प्रमाण नहीं बताया गया है, लेकिन धवलाटीकाकार ने इसको स्पष्ट किया है।36 अकलंक ने भी निम्न प्रमाण से नरक के अवधि के क्षेत्र का वर्णन करते हुए कहा है कि यह प्रमाण नीचे की ओर का है। ऊपर की ओर का प्रमाण स्वयं के नरकावास के अंत तक है और तिरछा प्रमाण असंख्यात कोड़ाकोड़ी योजन का है। लेकिन इस प्रमाण में जघन्य और उत्कृष्ट का भेद नहीं किया है। लेकिन श्वेताम्बर आगम प्रज्ञापनासूत्र के 33वें पद में अवधि का आकार त्रप के आकार का उल्लेख है। यह त्रप एक प्रकार की छोटी नाव (होड़ी) है। जो आगे की ओर से तो तीखी होती है, पीछे की ओर से नाव की चौड़ाई जैसी होती है अर्थात् आधी नाव के समान होती है। उसकी लम्बाई वह रत्नप्रभा पृथ्वी के अवधि की साढ़े तीन और चोर कोस जितनी समझनी चाहिए। इस नाव की चौड़ाई एवं जाड़ाई के अनुरूप नरक जीवों के अवधि की ऊंचाई एवं चौडाई समझनी चाहिए। 230. आवश्यकनियुक्ति गाथा 46, विशेषावश्यक भाष्य गाथा 568, षट्खण्डागम पु. 13, सूत्र 5.5.59, गाथा 16, पृ. 326 231. तिरश्चां तु देशावधिरेव न परमावधिर्नापि सर्वावधिः । तत्त्वार्थराजवार्तिक, पृ.1.22, पृ.57 232. विशेषावश्यकभाष्य गाथा 690-691 233. षट्खण्डागम पु. 13, सूत्र 5.5.59, गाथा 16, पृ. 325-326 234. प्रज्ञापनासूत्र भाग 3, पृ. 184-186 235. विशेषावश्यकभाष्य गाथा 693-694 की टीका पृ. 296 236. आवश्यकनियुक्ति गाथा 47, विशेषावश्यकभाष्य 692-694, षट्खण्डागम पु. 13, सूत्र 5.5.59, गाथा 16, पृ. 326, मलयगिरि, नंदीवृत्ति, पृ. 86 237. नारकेषु योजनमर्धगव्यूतहीनमागव्यूतात् तद्यथा रत्नप्रभायां योजनमवधिः...................सर्वासु पृथिवीषु नारकाणामवधिरुपरि आत्मीयनरकावासोंतस्तिर्यगसंख्याता योजनकोटीकोट्यः । -तत्त्वार्थराजवार्तिक सूत्र 1.21.6 पृ. 55
SR No.009391
Book TitleVisheshavashyakbhashya ka Maldhari Hemchandrasuri Rachit Bruhadvrutti ke Aalok me Gyanmimansiya Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPavankumar Jain
PublisherJaynarayan Vyas Vishvavidyalay
Publication Year2014
Total Pages548
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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