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पंचम अध्याय - विशेषावश्यकभाष्य में अवधिज्ञान
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परमावधि और सर्वावधि की तुलना
ये दोनों स्वामी का अनुसरण करते हैं इसलिए अनुगामी है। इस ज्ञानधारी को उसी भव में केवलज्ञान होता है जिससे परभव का अनुगम नहीं होता है अतः अननुगामी भी हैं। दोनों का नाश नहीं होता इसलिए अप्रतिपाती है। परमावधि में वृद्धि होती है इसलिए वर्द्धमान, सर्वावधि में वृद्धि नहीं होती अतः वर्धमान नहीं होता है। दोनों में हानि नहीं होती है इसलिए हीयमान नहीं होते हैं। परमावधि में एक निश्चित काल तक वृद्धि/हानि नहीं होती और सर्वावधि में तो वृद्धि/हानि होती ही नहीं है। इसलिए दोनों अवस्थित हैं। परमावधि में हानि तो नहीं, परंतु वृद्धि होती है, अतः वृद्धि की अपेक्षा अनवस्थित है और सर्वावधि में वृद्धि/हानि नहीं होती अतः अनवस्थित नहीं है। विद्यानंद ने परमावधि को अनवस्थित नहीं माना हैं, शेष विवेचन में वे अकंलक का अनुसरण करते हैं 21 अवधिज्ञान का द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव की अपेक्षा विषय
अवधिज्ञानी द्रव्य रूप में किन पुद्गलों का जानता है, वह द्रव्य से विषय कहलाता है। अवधिज्ञान के विषय की अपेक्षा से मुख्य रूप से तीन भेद होते हैं - देशावधि, परमावधि, सर्वावधि। परमावधि को केन्द्र में रखते हुए देशावधि आदि के द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव की अपेक्षा से विषय का वर्णन निम्न प्रकार से हैं - परमावधि का द्रव्य की अपेक्षा विषय
प्रश्न - जिस प्रकार जघन्य और मध्यम अवधिज्ञानी कुछ ही रूपी द्रव्यों को देखता है वैसे ही उत्कृष्ट अवधिज्ञानी भी कुछ रूपी द्रव्यों को देखता है या सारे रूपी द्रव्यों को देखता है?
उत्तर - एक आकाश प्रदेश को अवगाहित करके रहने वाला एक प्रदेशावगाढ परमाणु, द्विआदि अणु से लेकर अनंताणुक स्कंध पर्यंत सभी द्रव्यों को तथा कार्मणशरीर वर्गणा के पुद्गलों को उत्कृष्ट अवधिज्ञानी (परमावधिज्ञानी) देखता है। यहाँ पर 'एक प्रदेशावगाढ' ऐसा सामान्य रूप से कहा है, इसका आशय यह है कि परमावधिज्ञानी परमाणु-द्वयणुकादि द्रव्य को जानते हैं। लेकिन 'एक प्रदेशावगाढ कार्मण शरीर' नहीं कहा है, क्योंकि कार्मणशरीर असंख्यात आकाश प्रदेश को अवगाहित करके रहता है इसलिए एक प्रदेशावगाढ संभव नहीं है। फिर भी सभी अगुरूलघु द्रव्य और शब्दादि गुरूलघु द्रव्य को परमावधि देखता है। यहाँ जाति की अपेक्षा एक वचन का प्रयोग किया है। यदि एक वचन का प्रयोग नहीं करेंगे तो एक प्रदेशावगाही कार्मणशरीर अगुरुलघु-गुरुलघु द्रव्य को परमावधि जानता है, ऐसा ग्रहण हो जाएगा। इस दोष के निराकरण के लिए एकवचन का प्रयोग किया है।
तैजसशरीर को देखने वाला अवधिज्ञानी काल से भव पृथक्त्व (2-9 भव) पर्यंत तक देखता है। 'तेया कम्मसरीरे, तेयादव्वे य भासदव्वे य। बोद्धव्वमसंखेज्जा, दीव-ससुद्दा य कालो य।' (वि. भाष्य, गाथा 673) के अनुसार तैजसशरीर को देखने वाला अवधिज्ञानी काल से पल्योपम के असंख्यातवें भाग को देखता है। मलधारी हेमचन्द्र के अनुसार वह असंख्यातकाल इस भव पृथक्त्व काल से अलग है और यह भवपृथक्त्व काल उस असंख्यातकाल से भिन्न नहीं है, लेकिन भवपृथक्त्व के अंदर ही इस पल्योपम के असंख्यातवें भाग का समावेश होता है अर्थात् यह काल भवपृथक्त्व से अधिक नहीं है और भवपृथक्त्व काल भी पल्योपम के असंख्यातवें भाग के अंदर ही है, बाहर नहीं 22 221. तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक 1.22 222. स एवानेन भवपृथक्त्वेन विशेष्यते, इदमपि च भवपृथक्त्वं तेनासंख्येयकालेन विशेष्यते-भवपृथक्त्वमध्य एव स पल्योपमासंख्येयभागः
कालो नाधिकः, एतन्मध्य एव च भवपृथक्त्वं न बहिस्तादिति। - विशेषावश्यकभाष्य बृहद्वृत्ति गाथा 675, पृ. 291