________________
[332] विशेषावश्यकभाष्य एवं बृहद्वृत्ति के आलोक में ज्ञानमीमांसीय अध्ययन ___ इस प्रकार पंच संग्रह के अनुसार आठ जीवग्राही वर्गणा और दस पौद्गलिक, कुल 18 वर्गणाओं का वर्णन हुआ है। द्रव्य वर्गणा के बयालीस प्रकार
किन्हीं-किन्हीं ग्रन्थों में 42 वर्गणाओं का उल्लेख भी प्राप्त होता है, जिसकी संगति निम्न तीन प्रकार से बिठा सकते हैं।
(1) औदारिक आदि आठ वर्गणाओं की अग्राह्य और ग्राह्य ये वर्गणाएं सोलह वर्गणाएं (8x2 =16) है। इन सोलह वर्गणाओं की जघन्य और उत्कृष्ट के भेद से (16x2 =32) बत्तीस वर्गणाएं होती हैं और इन बत्तीस वर्गणाओं में ध्रुव से अचित्त महास्कंध (पंचसंग्रह) ये दस (1-10) वर्गणा और मिलाने पर कुल बयालीस (42) वर्गणाएं होती है।
(2) 1. एक परमाणु की एक वर्गणा से लेकर यावत् दस परमाणु की दसवीं वर्गणा, संख्यात वर्गणा असंख्यात वर्गणा और अनंत वर्गणा, इस प्रकार कुल तेरह वर्गणाएं हुई। 2. औदारिक आदि आठ की ग्राह्य और अग्राह्य वर्गणा कुल सोलह (8x2=16) वर्गणाएं। 3. पंचसंग्रह वाली दस वर्गणाएं। 4. अचित्त महास्कंध की खंडित (दूसरे, तीसरे समय में) और अखण्डित (चौथे समय में) ये दो वर्गणाएं। 5. सांतर-निरंतर वर्गणा (अध्रुवाचित्त वर्गणा में) यह एक वर्गणा। इस प्रकार इन सब को जोड़ने पर बयालीस (13+16+10+2+1=42) वर्गणाएँ होती हैं। लेकिन यहाँ अचित्त महास्कंध के दो भेद मानने होगे तीन नहीं।
(3) हरिभद्रावश्यक और मलयगिरि आवश्यकवृत्ति के अनुसार - (1) एक परमाणु से सूक्ष्म अनंत प्रदेशी (2-4) औदारिक की अग्राह्य, ग्राह्य, अग्राह्य, (5-7) वैकिय की अग्राह्य, ग्राह्य, अग्राह्य, (8-10) आहारक की अग्राह्य, ग्राह्य, अग्राह्य, (11-13) तैजस की अग्राह्य, ग्राह्य, अग्राह्य, (14-16) भाषा की अग्राह्य, ग्राह्य, अग्राह्य, (17-19) श्वासोच्छ्वास की अग्राह्य, ग्राह्य, अग्राह्य, (20-22) मन की अग्राह्य, ग्राह्य, अग्राह्य (23-25) कार्मण की अग्राह्य, ग्राह्य, अग्राह्य, (26) अन्तंध्रुव (27) अनंत अध्रुव (28) शून्यान्तर (29) अशून्यान्तर (30) ध्रुवान्तर (31) अतंराल (32) ध्रुवान्तर (33) अतंराल (34) ध्रुवान्तर (35) अन्तरांल (36) ध्रुवान्तर (37-40) तनुवर्गणा (41) मिश्रस्कन्ध (42) अचित्तमहास्कंध।
द्रव्य वर्गणा का स्वरूप पूर्ण हुआ अब क्रमशः क्षेत्रादि वर्गणाओं का वर्णन करते हैं। क्षेत्र वर्गणा
क्षेत्र वर्गणा का आधार आकाश प्रदेश है। एक परमाणु से लेकर अनंत प्रदेशी स्कंध जो एक आकाश प्रदेश को अवगाहित करके रहता है, उन सभी की एक वर्गणा, द्वयणुक आदि से अनंताणु पर्यंत के दो प्रदेश अवगाही रहे हुए स्कंधों की दूसरी वर्गणा, इसी प्रकार एक एक प्रदेश की वृद्धि से संख्यात प्रदेश में अवगाही रहे हुए स्कंधों की संख्यात वर्गणा होती है, ये सभी क्षेत्र वर्गणा के अन्तर्गत आती हैं।
असंख्यात प्रदेशावगाही स्कंधों की असंख्यात वर्गणाएं जीव के द्वारा कर्मवर्गणा के रूप में ग्रहण करने योग्य होती हैं। क्योंकि वह थोड़े परमाणुओं से बनी, स्थूल परिमाण वाली और बहुत आकाश प्रदेश को अवगाहन करके रहती है। फिर एक-एक आकाश प्रदेश की वृद्धि होने पर उनमें अवगाढ़ वर्गणाएं कर्म के अग्रहण योग्य हो जाती हैं। कर्म के अग्रहण योग्य असंख्य वर्गणाएं हैं। उसके बाद इसी प्रमाण से एक-एक आकाश प्रदेश अवगाही वृद्धि से बढ़ती हुई मन के अग्रहण योग्य भी असंख्य वर्गणाएं हैं। इनके बाद असंख्य वर्गणाएं मन के ग्रहण योग्य होती हैं और इतनी ही वापस