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[306] विशेषावश्यकभाष्य एवं बृहद्वृत्ति के आलोक में ज्ञानमीमांसीय अध्ययन अवधिज्ञान कहलाता है अर्थात् अवधिज्ञानावरणीय कर्म के उदयावलिका में प्रविष्ट अंश का वेदन होकर पृथक् हो जाना क्षय है और जो उदयावस्था को प्राप्त नहीं है, उसके विपाकोदय को दूर कर देना (स्थगित कर देना) उपशम कहलाता है। जिस अवधिज्ञान का क्षयोपशम ही मुख्य कारण हो, वह क्षयोपशम प्रत्यय या क्षायोपशमिक-प्रत्यय या क्षायोपशमिक अवधिज्ञान कहलाता है।
अवधिज्ञानावरणीयकर्म के देशघाती स्पर्धकों का उदय रहते हुए सर्वघाति स्पर्धकों का उदयाभावी क्षय और अनुदय प्राप्त इन्हीं का सदवस्थारूप उपशम, इन दोनों के निमित्त से जो होता है, वह क्षयोपशम निमित्तक अवधिज्ञान है।
पूज्यपाद और अकलंक के अनुसार मनुष्यों और तिर्यंचों में अवधिज्ञान की प्राप्ति में क्षयोपशम ही निमित्त भूत है भव नहीं, इसलिए इसे क्षायोपशमिक अवधिज्ञान कहते हैं। सम्यक्त्व से अधिष्ठित अणुव्रत
और महाव्रत गुण जिस अवधिज्ञान के कारण हैं वह गुणप्रत्यय अवधिज्ञान है।' गुणप्रत्यय अवधिज्ञान शंख आदि चिह्नों से उत्पन्न होता है अर्थात् नाभि के ऊपर शंख, पद्म, वज्र, स्वास्तिक, मच्छ, कलश आदि शुभ चिह्नों से युक्त आत्म प्रदेशों में स्थित अवधिज्ञानावरण और वीर्यातराय कमों के क्षयोपशम से उत्पन्न होता है। गुणप्रत्यय अवधिज्ञान असंयमी सम्यग्दृष्टि के सम्यग्दर्शन गुण के निमित्त से और संयतासंयत के संयमासंयम (देश संयम) गुणपूर्वक तथा संयत के संयम गुण के होने से होता है।'
'क्षयोपशम' शब्द 'क्षय' और 'उपशम' से बना है। क्षय का अर्थ है जो कर्म उदयावलिका में प्रविष्ट हो गये हैं, उनका क्षय अर्थात् नाश और उपशम का अर्थ - जो कर्म उदय में नहीं आये हैं उनका उपशम। ___हरिभद्रसूरि के अनुसार उपशम का अर्थ उदय का निरोध है। मलयगिरि के अनुसार जो कर्म उदयावलिका में प्रविष्ट नहीं हुए हैं ऐसे कर्मों के विपाकोदय का विष्कंभ करना (रोकना) उपशम कहलाता है।
क्षायोपशमिक अवधिज्ञान को गुणप्रत्यय अवधिज्ञान भी कहते हैं। गुणप्रत्यय अवधिज्ञान मनुष्यों और तिर्यंच पंचेन्द्रियों के होता है। इसमें अवधिज्ञान की नियमा नहीं है, क्योंकि इन दोनों में भव कारण नहीं होता है, बल्कि जिन मनुष्यों और तिर्यंच पंचेन्द्रियों के अवधिज्ञानावरण का क्षयोपशम होता है, उन्हीं के इस प्रकार का अवधिज्ञान होता है। इसलिए नंदीचूर्णिकार ने क्षयोपशम के दो अर्थ किए हैं - गुण के बिना होने वाला और गुण की प्रतिपत्ति से होने वाला क्षयोपशम ।' गुण के बिना होने वाले क्षयोपशम से उत्पन्न अवधिज्ञान के लिए चूर्णिकार ने दृष्टांत दिया कि आकाश बादलों से ढका हो, लेकिन हवा आदि से बीच में एक छिद्र हो गया, उस छिद्र में से सहज रूप से सूर्य की
68. खाओवसमियं तयावरणिज्जाणं कम्माणं उदिण्णाणं उवसमेणं ओहिणाणं समुप्पज्जति। - नंदीसूत्र, पृ. 30 69. आत्मगण का आच्छादन करने वाली कर्म की शक्ति का नाम स्पर्धक है अथवा स्पर्धक अर्थात् जो गवाक्ष जाल आदि से
बाहर निकलने वाली दीपक प्रभा के समान नियत विच्छेद विशेष रूप हैं। स्पर्धक दो प्रकार के होते हैं- देशघाती और सर्वघाती। आत्मा के गुणों को एक देश से आवरित करने वाले कर्मदलिक देशघाती स्पर्धक और आत्मा के सर्वगुणों को
आच्छादित करने वाले कर्मदलिक सर्वघाती स्पर्धक कहलाते हैं। 70. सर्वार्थसिद्धि, सूत्र 1.22, पृ. 90, तत्त्वार्थवृत्ति पृ. 356
71. सर्वार्थसिद्धि, 1.22 पृ. 90 72. क्षयोपशमनिमित्त एव न भवनिमित्त। - तत्त्वार्थराजवार्तिक 1.22.3 73. षट्खण्डागम, पृ.13 सूत्र 5.5.53, पृ. 290-291
74. गोम्मटसार जीवकांड भाग 2 पृ. 618 75. प्रमाणपरीक्षा, प्रस्तावना पृ. 73
76. उपशमेन उदयनिरोधेन। - हारिभद्रीय, नंदीवृत्ति, पृ.26 77. अनुदीर्णानाम् उदयावलिकामप्राप्तानामुपशमेन-विपाकोदयविष्कम्भलक्षण। - मलयगिरि, नंदीवृत्ति, पृ. 77 78. सो य खयोवसमो गुणमंतरेण गुणपडिवत्तितो वा भवति - नंदीचूर्णि पृ.25