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पंचम अध्याय - विशेषावश्यकभाष्य में अवधिज्ञान
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नारकी और देव गति के जीवों को अवधिज्ञान की प्राप्ति होती है। भवप्रत्यय अवधिज्ञान में भी क्षयोपशम तो होता ही है। यदि ऐसा न हो तो सभी देव और नारकों के अवधिज्ञान में विभिन्नता क्यों होती है? इससे स्पष्ट होता है कि भवप्रत्यय अवधिज्ञान भी क्षयोपशम के अनुसार ही होता है।
आचार्य विद्यानन्दा के अनुसार भवप्रत्यय अवधिज्ञान की प्राप्ति के लिए भव और क्षयोपशम ये जो दो कारण बताये हैं, वे युक्तिसंगत हैं, क्योंकि क्षयोपशम को स्वीकार करने पर ही नारकी, देवता में जो कम-ज्यादा अवधि होता है, उसकी संगति बैठेगी। यदि ऐसा स्वीकार नहीं करेंगे तो नारकी
और देवता में एक समान अवधिज्ञान होना चाहिए था, लेकिन नहीं होता है। तथा इन दोनों कारणों के बीच में कोई विरोध नहीं है, क्योंकि एक बाह्य कारण है और दूसरा आभ्यंतर कारण है।
सारांश रूप में हम कह सकते हैं कि कर्मों का जो क्षय, क्षयोपशम और उपशम होता है वह द्रव्य, क्षेत्र, काल, भव और भाव रूप पांच प्रकार का होता है। इसलिए नारकी और देवता के भव का निमित्त मिलने पर जीव के अवधिज्ञानावरणीय कर्म का अवश्य क्षयोपशम होता है और भव के निमित्त से ही क्षयोपशम होता है इसलिए इसे भवप्रत्ययिक अवधिज्ञान कहते हैं।
प्रश्न - मनुष्य गति में भी तीर्थंकरों को भव (जन्म) के साथ ही अवधिज्ञान होता है तो उसे भी भवप्रत्ययक अविधज्ञान कहना चाहिए?
उत्तर - तीर्थंकर भव नाम का अलग भव नहीं है। वह मनुष्य गति में ही शामिल है। यदि सभी मनुष्यों को होता तो भवप्रत्यय कहलाता। अथवा इसका दूसरा कारण यह भी हो सकता है कि ऐसे जीवों (तीर्थंकरों) की संख्या अल्प होने से उसे यहाँ उल्लेखित नहीं किया हो।
प्रश्न - क्या मनुष्य में केवल तीर्थंकर ही अवधिज्ञान साथ में लाते हैं अन्य मनुष्य नहीं?
उत्तर - तीर्थंकर भगवान् के सिवाय कोई दूसरा मनुष्य अवधिज्ञान साथ ले कर गर्भ में आ सकता है, क्योंकि भगवती, प्रज्ञापना, जीवाजीवाभिगम आदि सूत्रों में अवधिज्ञान की कायस्थिति उत्कृष्ट 66 सागरोपम झाझेरी बताई है। यह कायस्थिति तीर्थंकर के अतिरिक्त दूसरे मनुष्य परभव से अवधिज्ञान साथ ले कर आवे, तभी लागू हो सकती है, तीर्थंकर की अपेक्षा नहीं। क्योंकि विजयादि अनुत्तर-विमान के दो भव अथवा बारहवें देवलोक या प्रथम ग्रैवेयक के तीन भव करे, तभी यह स्थिति घटित हो सकती है। ऐसे दो या तीन भव सामान्य मनुष्य ही करते हैं, तीर्थंकर भगवान् तो मोक्ष पधार जाते हैं। इसलिए उनकी अपेक्षा उत्कृष्ट स्थिति नहीं होती। भगवती सूत्र श. 13 उ. 1 व 2 में नरक और देवों से संख्यात अवधिज्ञानी जीवों का आना बताया है। इससे भी उपर्युक्त बात सिद्ध होती है कि तीर्थंकर के सिवाय दूसरे मनुष्य भी परभव से अवधिज्ञान लेकर आ सकते हैं। तीर्थंकर का अवधिज्ञान चारित्र प्राप्ति के पूर्व भी अप्रतिपाती होता है। गुणप्रत्यय (क्षायोपशमिकप्रत्यय) अवधिज्ञान का स्वरूप
विशेषावश्यकभाष्य के अनुसार तप आदि विशेष गुणों के परिणाम से उत्पन्न हुआ अवधिज्ञान क्षयोपशम प्रत्ययिक कहलाता है। यह ज्ञान संज्ञी तिर्यंच पंचेन्द्रिय और मनुष्य में होता है।'
नंदीसूत्र के मूल पाठ में आया है 'को हेऊ खाओवसमियं?' अर्थात् क्षायोपशमिक अवधिज्ञान का हेतु क्या है? इसका उत्तर देते हुए गुरु कहते हैं कि अवधिज्ञानावरणीय कर्म के उदयगत कर्मदलिकों का क्षय होने से तथा अनुदित कर्मदलिकों का उपशम होने से जो ज्ञान उत्पन्न होता है वह क्षायोपशमिक 66. प्रत्ययस्यान्तरस्यातस्तत्क्षयोपशमात्मनः । प्रत्यग्भेदोऽवधेर्युक्तो भवाभेदेऽपि चाङ्निाम्।-तत्त्वार्थश्वोलकवार्तिक, सू. 1.21, पृ. 244 67. तपःप्रभृतिगुणपरिणामाविर्भूतक्षयोपशमप्रत्यया इत्यर्थः एताश्च तिर्यङ्मनुष्याणामिति।
-विशेषावश्यकभाष्यगाथा 568 की बृहवृत्ति, पृ.260