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________________ [302] विशेषावश्यकभाष्य एवं बृहद्वृत्ति के आलोक में ज्ञानमीमांसीय अध्ययन अकलंक (अष्टम शती) ने कहा है कि 'अव' पूर्वक 'धा' धातु से अवधि शब्द बनता है। 'अव' शब्द 'अध' वाची है जैसे अधः क्षेपण को अवक्षेपण कहते हैं, अवधिज्ञान भी नीचे की ओर बहुत पदार्थों को विषय करता है अथवा अवधि शब्द मर्यादार्थक है अर्थात् द्रव्य क्षेत्रादि की मर्यादा से सीमित ज्ञान अवधि ज्ञान है यद्यपि केवलज्ञान के सिवाय सभी ज्ञान सीमित हैं फिर भी रूढ़िवश अवधिज्ञान को ही सीमित ज्ञान कहते हैं जैसे गतिशील सभी पदार्थ हैं फिर भी गाय को रूढ़िवश गौ (गच्छतीति गौः) कहा जाता है। यही परिभाषा पंचसंग्रह और गोम्मटसार में भी मिलती है।" वीरसेनाचार्य (नवम शती) ने षट्खण्डागम की धवलाटीका में अवधिज्ञान का स्वरूप बताते हुए कहा है कि नीचे गौरव धर्मवाला होने से, पुद्गल की अवाग् संज्ञा है, उसे जो धारण करता है अर्थात् जानता है, वह अवधि है और अवधि रूप ही ज्ञान अवधिज्ञान है अथवा अवधि का अर्थ मर्यादा है, अवधि के साथ विद्यमान ज्ञान अवधिज्ञान है। यह अवधिज्ञान मूर्त पदार्थ को ही जानता है क्योंकि रूपिष्वधे: 25 ऐसा सूत्र वचन है ।" धवला पुस्तक 6 में भी यही परिभाषा देते हुए कहा है कि द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव की अपेक्षा विषय संबंधी मर्यादा के ज्ञान को अवधि कहते हैं अवधिज्ञान के इस स्वरूप की पुष्टि कषायपाहुड, तत्त्वार्थराजवार्तिक, धवला पुस्तक एक और कर्मप्रकृति" में भी लगभग अवधिज्ञान का ऐसा ही स्वरूप प्रतिपादित किया है। षट्खण्डागम पु. 9, सूत्र 4.1.3 के अनुसार अवधिज्ञान में रूपी का अर्थ पुद्गल नहीं समझना चाहिए बल्कि कर्म व शरीर में बद्ध जीव द्रव्य और संयोगी भाव भी समझना चाहिए। कसायपाहुड की जयधवला टीका के अनुसार महास्कंध से लेकर परमाणु पर्यंत समस्त पुगल द्रव्यों को, असंख्यात लोकप्रमाण क्षेत्र, काल और भावों को तथा कर्म के संबंध से पुल भाव को प्राप्त हुए जीवों को प्रत्यक्ष रूप से जानता है, वह अवधि ज्ञान है " आचार्य नेमिचन्द्र (एकादश शती) का अभिमत है कि विशिष्ट अवधिज्ञानावरण कर्म के क्षयोपशम से मन के सानिध्य में जो सूक्ष्म पुगलों को जानता है, स्व और पर के पूर्व जन्मांतरों को तथा भविष्य के जन्मांतरों को जानता है वह अवधिज्ञान है। उपर्युक्त वर्णन के अनुसार दोनों परम्पराओं के आचार्यों ने अवधिज्ञान को लगभग समान रूप से अवधि में प्रयुक्त 'अव' अव्यय का अर्थ 'नीचे' और मर्यादा करते हुए दोनों प्रकार से अवधिज्ञान को परिभाषित किया है। 22. तत्त्वार्थराजवार्तिक ( हिन्दीसार सहित ), पृ. 293 23. अवहीयादि त्ति ओही सीमाणाणेतित वण्णियं समए । पंचसंग्रह, गाथा 123, पृ. 26-27 24. गोम्मटसार ( जीवकांड), भाग 2, पृ. 617-618 25. तत्त्वार्थसूत्र, अध्याय 1.27 26. अवाग्धानादवधिः। अथवा गौरवधर्मत्वात् पुद्गलः अवाङ्नाम, तं दधाति परिच्छिनत्तीति अवधिः । अवधिरेव ज्ञानमवधिज्ञानम् । अथवा अवधिः मर्यादा अवधिना सह वर्तमानं ज्ञानभवधिज्ञानम् इदमवधिज्ञानं मूर्तस्यैव वस्तुनः परिच्छेदकम् रूपिष्ववधे इति वचनात् । षट्खंडागम, पुस्तक 13, पृ. 210 211 27. अवाग्धानादवधिः अवधिश्च स ज्ञानं च तत् अवधिज्ञानम् । अथवा अवधि मर्यादा अवधेर्ज्ञानमवधिज्ञानम् । 28. कषायपाहुड (जयधवल / महाधवल) प्रथम भाग, पृ. 13 30. ओहिणाणं णाम दव्वक्खेत्तकाल भाव वियप्पियं पोग्गलदव्वं पच्चक्खं जाणादि । षट्खण्डागम (धवला), पुस्तक 6, पृ. 25 29. तत्त्वार्थराजवार्तिक, पृ. 319 षट्खण्डागम, पुस्तक 1, पृ. 93 एवं साक्षान्मूर्तशेषपदार्थपरिच्छेदकमवधिज्ञानम्, पृ. 358 31. अभयचन्द्रसिद्धान्त चक्रवर्तीकृत, कर्मप्रकृति, पृ. 18 32. कसायपाहुड (जयधवला), पृ. 38-39 33. विशिष्टावधिज्ञानावरणक्षयोपशमात् मनसोऽवष्टंभेन यत्सूक्ष्मान् पुद्गलान् परिच्छिनत्ति स्वपरयोश्च पूर्वजन्मान्तराणि जानाति, भविष्यजन्मान्तराणि च तदवधिज्ञानम् । द्रव्यसंग्रह, गाथा 5 की टीका नं. 12 -
SR No.009391
Book TitleVisheshavashyakbhashya ka Maldhari Hemchandrasuri Rachit Bruhadvrutti ke Aalok me Gyanmimansiya Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPavankumar Jain
PublisherJaynarayan Vyas Vishvavidyalay
Publication Year2014
Total Pages548
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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