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विशेषावश्यकभाष्य एवं बृहवृत्ति के आलोक में ज्ञानमीमांसीय अध्ययन
अनुयोगद्वार, अनुयोगद्वारसमास, प्राभृतप्राभृत, प्राभृतप्राभृतसमास, प्राभृत, प्राभृतसमास, वस्तु, वस्तुसमास, पूर्व और पूर्वसमास ।18 तत्त्वार्थभाष्य में पूर्व, वस्तु, प्राभृत, प्राभृतप्राभृत का उल्लेख है। लेकिन ये श्रुत के प्रकार नहीं है। __जितने संयोगाक्षर उतने श्रुतज्ञान के भेद बताये हैं, तथा षट्खण्डागम के सू. 5.5.47 में 20 भेद बताये हैं, तो इस भिन्नता का क्या कारण है? इसका समाधान देते हुए वीरसेनाचार्य ने कहा है कि पूर्व सूत्र में अक्षर निमित्त की अपेक्षा से श्रुत के भेदों का उल्लेख किया था, परन्तु इस सूत्र में क्षयोपशम का अवलम्बन लेकर आवरण के भेदों का कथन किया है, इसलिए कोई दोष नहीं है।20।
षट्खंडागम में श्रुतज्ञान के बीस भेदों मात्र नामोल्लेख ही मिलता है, इनके स्वरूप आदि की चर्चा नहीं की गई है। लेकिन धवलाटीका में इनका विस्तार से वर्णन किया गया है तथा श्तेताम्बराचार्य देवेन्द्रसूरि ने कर्मग्रंथ-21 में भी इनका उल्लेख किया है। उन्हीं का यहाँ निरूपण किया जा रहा है। ___ 1. पर्याय - क्षरण अर्थात् विनाश का अभाव होने से केवलज्ञान अक्षर कहलाता है। उसका अनन्तवां भाग पर्याय नाम का श्रुतज्ञान है। वह पर्याय नाम का श्रुतज्ञान केवलज्ञान के समान निरावरण और अविनाशी है। सूक्ष्म-निगोद के लब्धि अक्षर से जो श्रुतज्ञान उत्पन होता है, वह भी कार्य में कारण के उपचार से पर्याय कहलाता है। 22 सूक्ष्म निगोद लब्धि अपर्याप्तक के जघन्य ज्ञान को लब्ध्यक्षर कहते हैं। यह केवलज्ञान के अनंतवें भाग रूप होता है और यह कभी भी आवरित नहीं है। 23 विशेषावश्यकभाष्य आदि में भी ऐसा ही वर्णन प्राप्त होता है, जिसका उल्लेख पूर्व में कर दिया गया है।
2. पर्याय समास - पर्याय श्रुत के समुदाय को पर्याय समासश्रुत कहते हैं। जब पर्याय ज्ञान पर्याय ज्ञान के अनन्तवें भाग के साथ मिल जाता है तब यह पर्यायसमास श्रुतज्ञान कहलाने लगता है। यह पर्याय समास-ज्ञान अनन्तभाग वृद्धि, असंख्यभाग वृद्धि, संख्यातभागवृद्धि तथा अनन्तभाग हानि, असंख्यातभाग हानि, संख्यातभाग हानि सहित होता है। पर्यायज्ञान के ऊपर अनन्तभाग वृद्धि, असंख्यातभाग वृद्धि, संख्यातभागवृद्धि, संख्यातगुणवृद्धि, असंख्यातगुणवृद्धि और अनन्तगुण वृद्धि के क्रम से वृद्धि होते-होते जब तक अक्षर ज्ञान की पूर्णता नहीं होती है तब तक का ज्ञान पर्यायसमास ज्ञान कहलाता है।
3. अक्षर - अन्तिम पर्याय समास ज्ञानस्थान में सब जीवराशि का भाग देने पर जो भाग फल आता है, उसे उसी में मिलाने पर अक्षर ज्ञान उत्पन्न होता है। (पर्यायसमास+पर्यायसमास स्थापन में सभी जीवराशि का भाग देते हुए प्राप्त हुई लब्धि = अक्षर) अथवा अकार आदि लब्धि अक्षरों में से किसी एक अक्षर का ज्ञान होना अक्षरश्रुत है। 24 यह अक्षरज्ञान सूक्ष्म लब्ध्यपर्याप्तक के अनन्तानन्त लब्ध्यक्षरों के बराबर होता है। धवलाटीका के अनुसार अक्षर के प्रकार से हैं - लब्धि अक्षर, निर्वृत्त्यक्षर और संस्थान अक्षर। जिनका वर्णन इसी अध्याय में पृ. 225 पर कर दिया है। विशेषावश्यकभाष्य में अक्षरों के भेद में अंतिम दो अक्षर व्यंजनाक्षर और संज्ञाक्षर हैं।
4. अक्षर समास - अक्षरश्रुत के ऊपर दूसरे अक्षर की वृद्धि होने पर अक्षर समास श्रुत होता है। यह इसका आरंभ बिन्दु है और यह वृद्धि संख्यात अक्षरों तक होती है। वहाँ तक उसका अधिकार चलता है। अथवा दो, तीन, चार आदि लब्धि अक्षरों का ज्ञान होना अक्षरसमास श्रुत है। 25 418. षट्खंडागम, पु. 13, सू. 5.5.47, पृ. 260 419. पूर्वाणि वस्तूनि प्राभृतानि प्राभृतप्राभृतानि।-तत्त्वार्थभाष्य 1.20 पृ. 94 420. षट्खण्डागम पृ. 13, सू. 5.5.47 पृ. 260
421. कर्मग्रंथ भाग 1, पृ. 19-21 422. षट्ख ण्डागम, पु. 6, सू. 1.9.1.14 पृ. 21-22
423. षट्खंडागम, पु. 13, सू. 5.5.48, पृ. 262 424.कर्मग्रन्थ भाग 1 पृ. 20
425. कर्मग्रंथ भाग 1 पृ. 20