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चर्तुथ अध्याय - विशेषावश्यकभाष्य में श्रुतज्ञान
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दिगम्बर परम्परा के अनुसार - पूज्यपाद के कथनानुसार आगम वक्ता तीन प्रकार के होते हैं - 1. सर्वज्ञ (तीर्थंकर, केवली) 2. श्रुतकेवली 3. आरातीय (उत्तरवर्ती)। इन तीनों के द्वारा रचित आगमों को प्रमाण माना गया है। इनमें से तीर्थंकर अर्थ रूप से आगम का उपदेश देते हैं। गणधर श्रुत केवली उस अर्थ से अंग और पूर्वग्रन्थों की रचना करते हैं और आरातीय आचार्यों द्वारा रचित एवं अंग आगमों से अर्थतया जुडे हुए ग्रन्थों को अंगबाह्य आगम कहा गया है। यहाँ उत्तरवर्ती (आरातीय) का अर्थ है गणधरों के शिष्य-प्रशिष्य, जिनका श्रुत परम्परा से निकटतम या घनिष्ठ सम्बन्ध है। ये आरातीय आचार्य उन शिष्यों के लिए अंगबाह्य आगमों की रचना करते हैं, जिसमें कालदोष से आयु, मति और बल में हीनता आयी है।99 अकलंक के भी ऐसे ही विचार है।00 वीरसेनाचार्य अंगबाह्य आगमों को इन्द्रभूतिगणधर की रचना मानते हैं। जयसेन के मतानुसार अंगप्रविष्ट और अंगबाह्य के अर्थ की भगवान् महावीर ने और दोनों की सूत्ररूप में रचना गौतम गणधर ने की है 02
पं. दलसुख मालवणिया का कथन है कि उपर्युक्त वर्णन से यह स्पष्ट है कि अंगप्रविष्ट की रचना गणधरों ने की है, इसमें कोई विरोध नहीं है। जबकि अंगबाह्य के रचनाकर के सम्बन्ध में दो मत हैं - एक मत तो गणधर रचित मानता है जबकि दूसरे मत वाले उनको स्थविरकृत मानते हैं। उक्त दो मतों में प्रथम मत प्राचीन परम्परा से संबंधित हो सकता है, क्योंकि भद्रबाहु स्वामी ने अंगबाह्य के प्रकार बताते हुए आवश्यकसूत्र को गणधरकृत माना है और जिनभद्रगणि ने भी इसका समर्थन किया है।03 प्रस्तुत मान्यता भद्रबाहु स्वामी को भी पूर्वपरम्परा से प्राप्त हुई थी, इसीलिए उन्होंने आवश्यक नियुक्ति में कहा है कि मैं परम्परा के अनुसार सामायिक के विषय में विवरण करता हूँ।04 बाद के काल में उमास्वाति ने अंगबाह्य को आचार्यकृत माना है।05 उमास्वाति और जिनभद्रगणि के मध्य वाले काल में उमास्वाति की मान्यता में शिथिलता आने से जिनभद्रगणि ने तीन प्रकार से इसका उल्लेख किया है। जिनभद्रगणि के बाद वाले काल में दोनों परम्पराएं समान रूप से प्रचलित थीं। इसी कारण से हरिभद्र और मलयगिरि एक ओर अंगबाह्य को स्थविरकृत स्वीकार करते हैं306 तो दूसरी ओर द्वादशांगी के साथ गणधर की भलावण दी है।07 ऐसा भी हो सकता है कि अंगबाह्य को गणधरकृत मानने की परम्परा श्वेताम्बर और दिगम्बर परम्परा में मतभेद के कारण प्रबल हुई हो, क्योंकि गणधर विशिष्ट ऋद्धि युक्त होने से उन्होंने भगवान् के उपेदश को साक्षात् ग्रहण किया था। इसलिए इनकी रचना अन्य की अपेक्षा से अधिक प्रामाणिक मानी जाती है। इसलिए पीछे के आचार्यों ने आगम में समावेश हो जाए ऐसे समस्त साहित्य को गणधरकृत कह दिया जिससे उनकी प्रामाणिकता स्वतः सिद्ध हो जाए। इस प्रवृत्ति से आगम-साहित्य से लेकर पुराण साहित्य तक समस्त अंगबाह्य साहित्य गणधरकृत माना जाने लगा। पुराणों को भी प्रामाणिक सिद्ध करने के लिए जैन पुराणकारों ने पद्मपुराण09 में कहा है
299. सर्वार्थसिद्धि, 1.20, पृ. 87 300. आरातीयाचार्यकृतागार्थ-प्रत्यासन्नरूपमंगबाह्य । तत्त्वार्थराजवार्तिक, 1.20.13 301. षटखण्डागम पु. 13, पृ. 279 302. हरिवंश पुराण, सर्ग 2 गाथा 101,111
303. गणधरवाद, प्रस्तावना . 9-11 304. आवश्यकनियुक्ति गाथा 87, विशेषावश्यकभाष्य गाथा 1080 305. आचार्यैः कालसंहननायु-र्दोषादल्पशक्तीनां शिष्याणामनुग्रहाय यत्प्रोक्तं तद्गबाहयमिति। तत्त्वार्थभाष्य 1.20, पृ. 92 306. हारिभद्रीय, नंदीवृत्ति, पृ. 91, मलयगिरि, नंदीवृत्ति, पृ. 203 307. अनंगप्रविष्टमावश्यकादि, ततोऽर्हत्प्रणीतत्वात्। - हारिभद्रीय, नंदीवृत्ति, पृ. 78, मलयगिरि, नंदीवृत्ति, पृ. 193 308. गणधरवाद प्रस्तावना प्रस्तावना पृ. 9