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[28] विशेषावश्यकभाष्य एवं बृहवृत्ति के आलोक में ज्ञानमीमांसीय अध्ययन अंगप्रविष्ट और अंगबाह्य का स्वरूप
उमास्वाति ने अंगबाह्य के कर्ता और उद्देश्य दोनों का निरूपण किया है। उनके अनुसार अंगबाह्य के रचनाकार आचार्य होते हैं, उनका आगम ज्ञान अत्यंत विशुद्ध होता है। वे परम प्रकृष्ट वाक्, मति, बुद्धि और शक्ति से युक्त होते हैं। वे काल, संहनन, आयु की दृष्टि से अल्पबुद्धि वाले शिष्यों को बोध देने के लिए अंगबाह्य की रचना करते हैं।91
विशेषावश्यकभाष्य में जिनभद्रगणि कहते हैं कि जो गणधरकृत है, आदेश -त्रिपदी से निष्पन्न है तथा नियत है, वह अंगप्रविष्टश्रुत है। अथवा जो आगम गणधरों द्वारा प्रश्न करने पर तीर्थंकर द्वारा उपदिष्ट है और गणधरों द्वारा सूत्रबद्ध है, वे अंगप्रविष्ट श्रुत हैं। जो स्थविरकृत है, मुक्त प्रतिपादन से गृहीत है तथा अनियत है, वह अंगबाह्य (अनंगप्रविष्ट) श्रुत है अथवा जो आगम बिना प्रश्न किये ही तीर्थंकर द्वारा उपदिष्ट होते हैं और जिनकी रचना स्थविरों आदि के द्वारा की गई होती है, वे अनंगप्रवष्टि हैं 92 नंदीचूर्णि में भी ऐसा ही उल्लेख मिलता है।293
जो बारह अंग वाले श्रुत-पुरुष से बाहर श्रुत है, वह 'अंगबाह्य' श्रुत है अथवा जिस श्रुतविभाग का कोई श्रुत, गणधर रचित भी हो सकता है, जैसे निरयावलिका आदि तथा कोई श्रुत, संकलन आदि की दृष्टि से (शब्द से तो गणधर रचित ही होता है) पूर्वधर श्रुत-स्थविर रचित भी हो सकता है, जैसे-प्रज्ञापना आदि, उस श्रुत-विभाग को 'अंगबाह्य' कहते हैं अथवा जिस श्रुत-विभाग का कोई श्रुत, सर्व क्षेत्र और सर्व काल में नियम से रचित होता है, जैसे-आवश्यक आदि और कोई नियत नहीं होता, जैसे पइन्ना विशेष आदि, उस श्रुत विभाग को 'अंगबाह्य' कहते हैं 94.
बृहत्कल्पभाष्य के अनुसार गणधर द्वारा रचित आगमों से स्थविरों द्वारा निर्मूढ आगम अंगबाह्य (अनंगप्रविष्ट) तथा इसके अलावा वृद्धपरम्परा से प्राणाणिक रूप से प्राप्त जिन-उपदेश व पारम्परिक मान्यताएं आदि जिनमें वर्णित है, वे भी अंगबाह्य (अनंगप्रविष्ट) आगम हैं।295
आवश्यकचूर्णि के अनुसार अतीत, अनागत और वर्तमान के द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव के यर्थाथद्रष्टा अहँतों ने जिन अर्थों की प्ररूपणा की, उन्हीं अर्थों को अहँतों से साक्षात् प्राप्त कर परम बुद्धि सम्पन्न तथा सर्वाक्षरसनिन्नपातलब्धि से युक्त गणधरों ने सब प्राणियों के हित के लिए सूत्र रूप में उपनिबद्ध किया। यही आचार आदि द्वादशांग अंगप्रविष्ट कहलाता है 96 अंगबाह्य आगम को अनंगप्रविष्ट भी कहा गया है, क्योंकि इसका समावेश अंग आगम में नहीं होता है।
मलयगिरि के अनुसार सब तीर्थकरों के तीर्थों में जो अनियत श्रुत है, वह भी अनंगप्रविष्ट है 97 नियत-अनियत अंग को स्पष्ट करते हुए मलयगिरि कहते हैं कि आचारांग आदि श्रुत सर्वक्षेत्र काल में अर्थ और क्रम के संदर्भ में इसी प्रकार व्यवस्थित है, इसलिए वह नियत है। जबकि अंगबाह्य में ऐसा नहीं होने से वह अनियत है। ऐसा भी मान सकते हैं कि गणधर सर्वोत्कृष्ट श्रुतलब्धि से संपन्न होने के कारण मूलश्रुत रचना करने में समर्थ होते हैं, इसलिए अंगप्रविष्ट का अर्थ मूल श्रुत है। जबकि स्थविर श्रुत को एक भाग में केन्द्रित रख कर रचना करते हैं, इससे उनकी रचना अंगबाह्य कहलाती है 98
291. तत्त्वार्थभाष्य 1.20
292. विशेषावश्यकभाष्य गाथा 550 293. गणहरथेरकयं वा आएसा, मुक्कवागरणओ वा। धुव-चलविसेसओ वा अंगाणंगेसु नाणत्तं। - नंदीचूर्णि पृ. 88 294. पारसमुनि, नंदीसूत्र, पृ. 224-225 295. बृहत्कल्पभाष्य, गाथा 144 एवं चूर्णि
296. आवश्यक चूर्णि 1 पृ. 8 297. मलयगिरि आवश्यक वृत्ति, पृ. 48
298. मलयगिरि, नंदीवृत्ति, पृ. 203