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[250] विशेषावश्यकभाष्य एवं बृहद्वृत्ति के आलोक में ज्ञानमीमांसीय अध्ययन ____ 2. सम्यक्श्रुत मिथ्याश्रुत रूप - "सम्मसुतं मिच्छदिट्ठिणो मिच्छसुतं' मिथ्यादृष्टि के लिए सम्यक्श्रुत मिथ्याश्रुत रूप है अर्थात् जीव के मिथ्यादृष्टि के कारण सम्यक् श्रुत भी मिथ्यारूप में परिणत होते हैं।
3. मिथ्याश्रुत सम्यक्श्रुत रूप - "मिच्छसुतं सम्मदिट्ठिणो सम्मसुतं" सम्यग्दृष्टि के लिए मिथ्याश्रुत सम्यक्श्रुत रूप है अर्थात् जीव के सम्यक्त्व गुण के कारण मिथ्या श्रुत भी सम्यक् रूप में परिणित होते हैं।
4. मिथ्याश्रुत मिथ्याश्रुत रूप - “मिच्छसुतं मिच्छदिट्ठिणो मिच्छसुतं" मिथ्यादृष्टि के लिए मिथ्याश्रुत मिथ्याश्रुत रूप है अर्थात् जीव अपने मिथ्या गुण के कारण पढे श्रुत को मिथ्या रूप में ग्रहण करता है। सम्यक्त्व के भेदों का स्वरूप
जिनभद्रगणिक्षमाश्रमण ने सम्यक श्रुत के प्रसंग पर ही औपशमिक, सास्वादन, क्षायोपशमिक, वेदक और क्षायिक, इन पांचों सम्यक्त्व का उल्लेख किया है। मलधारी हेमचन्द्र ने बृहद्वृत्ति में इनके स्वरूप का विस्तार से वर्णन किया है, जो कि निम्न प्रकार से है। 1. औपशमिक समकित
मिथ्यात्वमोहनीयकर्म का उपशम अन्तमुहूर्त काल तक रहने से जो तत्त्व रुचि होती है, वह औपशमिक समकित है 46
उपशम समकित तीन प्रकार के जीवों को प्राप्त होती है - 1. उपशम श्रेणि प्राप्त जीव को, 2. अनादि मिथ्यात्वी जिसने मिथ्यात्वमोहनीय के तीन पुंज नहीं किये (जिसने मिथ्यात्व मोहनीय कर्म को शुद्ध, अशुद्ध और मिश्र रूप में विभाजित नहीं किया है) उसको, 3. जिसने मिथ्यात्व का क्षय नहीं किया उसको उपशम समकित की प्राप्ति होती है।
त्रिपुंज - अनादि मिथ्यादृष्टि जीव विशुद्धि प्राप्त करके अपूर्वकरण में मिथ्यात्व मोहनीय के दलिकों को शुद्ध, अशुद्ध और अर्द्धशुद्ध रूप में विभाजित करता है, यह विभाजन ही त्रिपुंज कहलाता है। इनमें से शुद्धपुंज सम्यक्त्वपुंज, अशुद्धपुंज मिथ्यात्वपुंज और अर्द्धशुद्धपुंज मिश्रपुंज कहलाता है। ये तीन पुंज करके जो सम्यक्त्व पुंज का विपाकोदय से अनुभव करता है, वह क्षायोपशमिक सम्यक्त्वी कहलाता है। जिसने ये तीन पुंज किये हैं वह सम्यक्त्वी है, (अत्र त्रिपुंजी दर्शनी सम्यग्दर्शनीत्यर्थः) क्योंकि वह सम्यक्त्व पुद्गल का वेदन करता है। इन तीनों में से कोई जीव सम्यक्त्वपुंज की उद्वेलना करता हैं, तो मिश्रपुंज का वेदन करते हुए वह मिश्रदृष्टि कहलाता है। जिसने मिश्रपुंज की भी उद्वेलना कर दी है, वह मिथ्यात्वपुंज का वेदन करते हुए मिथ्यादृष्टि कहलाता है।47
उपशम समकित की प्राप्ति - कोई अनादि मिथ्यादृष्टि जीव यथाप्रवृत्तिकरण से आयु कर्म को छोड़कर शेष सात कर्मों की दीर्घ स्थिति को क्षय करते हुए कर्मों की स्थिति को अन्तः कोटाकोटी प्रमाण करता है। अपूर्वकरण से ग्रंथि भेद करता हुआ अनिवृत्तिकरण करता है। अनिवृत्तिकरण में वह उदयगत मिथ्यात्व का क्षय करता है और सत्ता में रहे हुए मिथ्यात्व के दलिकों को विशुद्धि से अन्तर्मुहूर्त तक उदय के अयोग्य बना देता है। इस अन्तर्मुहूर्त में जीव को उपशम समकित की प्राप्ति होती है। अन्तर्महर्त का काल पूरा होने पर त्रिपुंज नहीं किये होने के कारण जीव पुन: मिथ्यात्व के उदय के कारण उपशम समकित से भ्रष्ट होकर मिथ्यात्व में चला जाता है। 246. विशेषावश्यकभाष्य गाथा 528 की बृहद्वृत्ति भावार्थ 247. विशेषावश्यकभाष्य गाथा 529 की बृहद्वृत्ति का भावार्थ