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विशेषावश्यकभाष्य एवं वृहद्वृत्ति के आलोक में ज्ञानमीमांसीय अध्ययन
अक्षर-अनक्षर रूप कहा जाता है। अन्यथा अशुद्ध नय के मत से सभी वस्तुएं स्वभाव से चलित नहीं होती हैं। इसलिए वे अक्षर रूप हैं। जिनभद्रगणिक्षमाश्रमण के अनुसार अक्षर का सर्वद्रव्य पर्याय परिणाम वाला होने से अक्षर का विशेष अर्थ केवलज्ञान होता है। जिसका रूढ़ अर्थ श्रुतज्ञान होता है। क्योंकि रूढ़िवश अक्षर का अर्थ वर्ण है।” हरिभद्र और मलयगिरि ने इसका समर्थन किया है।" वर्ण का स्वरूप
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वर्ण शब्द 'वर्ण' धातु से बना है। उसकी व्युत्पत्ति दो प्रकार से होती है - 1. वण्णिज्जड जेणत्थो चित्तं विण्णेण वा (वर्ण्यते प्रकाश्यतेः अर्थः अनेन )' अर्थात् जैसे काला, नीला, लाल, पीला रंग (वर्ण) के चित्र का दीवार आदि पर प्रकाशन होता है, वैसे ही अकारादि वर्ण से घट-पट आदि अभिधेय अर्थ का प्रकाशन होता है 2. 'वण्णिज्जइ दाइज्जइ भण्णइ तेणक्खरं वण्णो (वर्ण्यते दर्श्यतेऽभिलप्यतेऽसौ इति वर्ण)' अर्थात् जो द्रव्य का वर्णन करता है, जो दिखता और बोलता है, वह वर्ण अक्षर कहलाता है। जिस प्रकार सफेद आदि गुण (वर्ण) से गाय आदि द्रव्य जैसे दिखाई देते हैं, वैसे ही अकारादि वर्णों से उस द्रव्य का निर्देश होता है, उससे भी उसे वर्ण कहते हैं वर्ण के भेद
वर्ण दो प्रकार के होते हैं स्वर और व्यंजन |
1. स्वर
जिनभद्रगणिक्षमाश्रमण के अनुसार 'अक्खरसरणेण सरा ( अक्षरस्वरणेन स्वरा)' अर्थात् जो अक्षर का अनुसरण करे उसे स्वर कहते हैं। मलधारी हेमचन्द्र के अनुसार स्वर शब्द 'स्वृ शब्दोपतापयोः ' धातु से बना है, अक्षरों के अनुसरण करण रूप स्वरण से अकारादि स्वर कहलाते हैं अथवा अक्षर, चैतन्य के अनुसरण से अकारादि स्वर कहलाते हैं । जो स्वतंत्र प्रकार से विष्णु आदि वस्तुओं का ज्ञान करते हैं, व्यंजनों के साथ संयुक्त होकर उनको उच्चारण के योग्य बनाते हैं" और शब्द के उच्चारण से अंतर्विज्ञान की अभिव्यक्ति को समर्थ बनाते हैं, " वे अकारादि स्वर कहलाते हैं। स्वर के बिना व्यंजनों के उच्चारण अर्थ का प्रतिपादन नहीं करते हैं । अथवा स्वर के बिना व्यंजन का उच्चारण नहीं होता है, अतः व्यंजन को उच्चारण योग्य बनाने वाले अकार आदि स्वर कहलाते हैं । 2. व्यंजन
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व्यंजन शब्द वि+अञ्ज् धातु से बना है। जिनभद्र के अनुसार 'वंजणमवि वंजण अस (व्यंजनमपि व्यंजनेनाऽर्थस्य ) ' अर्थात् अर्थ (पदार्थ) को प्रकट करने वाले को व्यंजन कहते हैं । जिस प्रकार दीपक से घट आदि बाह्य अर्थ की अभिव्यक्ति होती है, वैसे ही जो शब्द अर्थ वस्तु को प्रगट करे वह व्यंजन कहलाता है। व्यंजन के संयोग के बिना स्वर स्वतन्त्र रूप से बाह्य अर्थ को प्रायः प्रकट नहीं करते हैं। क्योंकि वाक्य में से व्यंजनों को निकाल देने पर शेष रहे स्वर विवक्षित अर्थ की अभिव्यक्ति नहीं करा सकते हैं मलयगिरि ने अक्षरश्रुत के प्रसंग में स्वर और व्यंजन का उल्लेख नहीं किया है। जो 'अ' 'क' आदि वर्णात्मक श्रुत है, उसे 'अक्षरश्रुत' कहते हैं ।"
75. विशेषावश्यकभाष्य गाथा 458-459 एवं बृहद्वृत्ति
76. हारिभद्रीय नंदीवृति पू. 74, मलयगिरि नंदीवृत्ति पृ. 201
78. स्वयमेव स्वरन्ति शब्दयन्ति विष्णुप्रमुखं वस्तु, व्यंजनानि चैते संयुक्ताः सन्तः स्वरयन्ति इति स्वराः ।
77. विशेषावश्यकभाष्य, गाथा 460
विशेषावश्यकभाष्य, गाथा 461 की बृहद्वृत्ति
79. शब्दोच्चारणमन्तेरणाऽन्तविज्ञानस्य बोद्धुमशक्यत्वात् विशेषावश्यकभाष्य गाथा 460 की बृहद्वृत्ति 80. विशेषावश्यकभाष्य, गाथा 461-463 81. पारसमुनि, नंदीसूत्र पृ. 206