________________
चर्तुथ अध्याय - विशेषावश्यकभाष्य में श्रुतज्ञान
[223]
हैं ज्ञान भी उत्पाद - नाश शील होने से क्षर (चलित) है, लेकिन नैगमादि अशुद्ध नय के मत से सभी भाव अवस्थित होने से ज्ञान भी अवस्थित अर्थात् अक्षर (अचलित ) है अभिलाप ( कहने योग्य) विज्ञान की अपेक्षा से यह अक्षरता-अनक्षरता प्रतिपादित है ।" जिनदासगणि, हरिभद्र और मलयगिरि का भी ऐसा ही मानना है। 9 घट व्योम आदि अभिलाप्य पदार्थ द्रव्यास्तिक नय की अपेक्षा से नित्य है, अतः अक्षर हैं और पर्यायास्तिक नय की अपेक्षा से अनित्य होने से क्षर (चलित) हैं।"
इसका समर्थन अर्वाचीन विद्वान कन्हैयालाल लोढ़ा ने भी किया है। उनके अनुसार वर्तमान में अक्षर का अर्थ लिपि में आये वर्णमाला के अक्षर है, क्योंकि इस अक्षर के टुकडे होने पर यह अर्थहीन, व्यर्थ हो जाता है। जैसा कि हम टेपरिकोर्डर में देखते हैं जो निगोद का जीव अक्षर सुनता ही नहीं हैं, तो उसमें अक्षर ज्ञान कैसे हो सकता है? नहीं हो सकता। इससे स्पष्ट है कि आगम में अक्षर शब्द का प्रयोग हुआ है, वह अमरत्व, ध्रुवत्व अर्थ के रूप में ही हुआ है ।"
1
जिनदासगण ने नंदीचूर्णि में अक्षर की परिभाषा बताते हुए कहा है कि जिसका कभी भी क्षरण नहीं होता, वह अक्षर है। ज्ञान अनुपयोग अवस्था में (विषय के प्रति एकाग्रता नहीं होने पर) भी नष्ट नहीं होता है, वह अक्षर है। 72
मलधारी हेमचन्द्र के अनुसार - अलग-अलग वर्णों के संयोग से जो अनन्त अर्थ प्रतिपादन करते हैं, लेकिन स्वयं क्षीण नहीं होते हैं, वे अक्षर कहलाते हैं।
आचार्य नेमीचन्द्र कहते हैं कि वाचक शब्द से वाच्यार्थ का ग्रहण अक्षरात्मक श्रुत है, और शीतादि स्पर्श में इष्टानिष्ट का होना अनक्षरात्मक श्रुत है । श्रुतज्ञान के अक्षर-अनक्षर भेद क्यों?
प्रश्न जो चलित नहीं होता है, वह अक्षर कहलाता है, इस अपेक्षा से मतिज्ञानादि पांचों ज्ञान अशुद्ध नय से अक्षर हैं, क्योंकि पांचों ज्ञान अपने स्वरूप से चलित नहीं होते हैं और नंदीसूत्र के अनुसार भी " सव्वजीवाणं पि य णं अक्खरस्स अनंतभागो, णिच्चुग्घाडिओ।" अर्थात् सभी जीवों के अक्षर का अनन्तवाँ भाग नित्य खुला रहता है। यहाँ भी सामान्य रूप से अक्षर शब्द से ज्ञान का ही ग्रहण किया गया है, श्रुतज्ञान का नहीं। इस प्रकार अशुद्धनय से तो ज्ञान ही अक्षर है, फिर श्रुतज्ञान के अक्षर-अनक्षर भेद क्यों किये हैं?
उत्तर जिनभद्रगणि कहते हैं कि नैगमादि अशुद्धनव से भी ज्ञान और सभी भाव अक्षर (नित्य) हैं, अतः सम्पूर्ण ज्ञान सामान्य रूप से अक्षर हैं, फिर भी यहां श्रुतज्ञान का प्रसंग होने से श्रुतज्ञान को ही अक्षर कहा है अर्थात् रूढि (परम्परा) के अनुसार वर्ण को अक्षर कहते हैं, शेष ज्ञान को नहीं । बृहद्वृत्ति में मलधारी हेमचन्द्र ने दृष्टांत के माध्यम से समझाया है कि जिस प्रकार 'गच्छतीति गौः' जो गमन करे वह गाय है, 'पंके जातं पंकजं' कीचड़ में जो उत्पन्न होता है, वह पंकज है। इस प्रकार सामान्य अर्थ का प्रतिपादन करते हुए शब्द भी रूढ़ि के वश विशेष अर्थ को प्रकट करते हैं। उसी प्रकार अक्षर शब्द से वर्ण का ही कथन होता है और वर्ण श्रुतरूप है । उसी को
-
68. विशेषावश्यकभाष्य, गाथा 456 की बृहदवृत्ति, पृ. 215
69. नंदीचूर्णि पृ. 71, हारिभद्रीय नंदीवृत्ति, पृ. 71, मलयगिरि नंदीवृत्ति, पृ. 187
70. विशेषावश्यकभाष्य, गाथा 457
71. बन्ध तत्त्व, पृ. 11
72. नंदीचूर्ण, पू. 71
73. अन्यान्यवर्णसंयोगेऽनन्तानर्थान् प्रतिपादयति, न च स्वयं क्षीयते येन, तेनाऽक्षरमिति । - वि०भाष्य गाथा 461 की बृहद्वृत्ति, पृ. 216 74. गोम्मटसार जीवकांड गाथा 316