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तृतीय अध्याय
विशेषावश्यक भाष्य में मतिज्ञान
कुछ है)
ईहा ( पर्यालोचनात्मक ज्ञान, जैसे यह स्थाणु होना चाहिए) अवाय (निश्चयात्मक ज्ञान, जैसे यह स्थाणु ही है ) - धारणा (अविच्चयुति, जैसे स्थाणु का ज्ञान संस्कार रूप में स्थिर रहना)
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पूज्यापाद के मत से व्यंजनावग्रह से पूर्व दर्शन होता है, इसलिए उक्त प्रक्रिया में व्यंजनावग्रह से पूर्व दर्शन का उल्लेख किया एवं जिनभद्रगणि के मत से व्यंजनावग्रह से पूर्व दर्शन नहीं होता है, अतः उनके अनुसार उक्त प्रक्रिया सीधे व्यंजनावग्रह से प्रारंभ होगी।
2. एक जीव अनन्त जीवों को और अनन्त पुद्गलों को तथा उनकी पर्यायों को मतिज्ञान द्वारा जानता है। इसलिए एक जीव की अपेक्षा भी मतिज्ञान की अनन्त पर्यायें होती हैं ।
3. शंका - जिस प्रकार परम (सर्वोत्कृष्ट) अवधिज्ञान होते ही अन्तर्मुहूर्त में केवलज्ञान हो जाता है, वैसे ही सर्वोत्कृष्ट मतिज्ञान होने पर केवलज्ञान होता है या नहीं। समाधान नहीं, क्योंकि प्रज्ञापना सूत्र के पांचवें पद (जीवपर्याय) में उत्कृष्ट मतिज्ञान में अवगाहना चतुःस्थानपतित बताई है। जो कि मारणांतिक समुद्घात की अपेक्षा से घटित होती है । अतः सर्वोत्कृष्ट मतिज्ञानी का चरमशरीर होना आवश्यक नहीं है एवं जीव उत्कृष्ट मतिज्ञान पूरे संसार काल में कितनी ही बार हो सकता है।
4. जातिस्मरण ज्ञान तो ज्ञानावरणीय के क्षयोपशम से होता है, लेकिन उत्तराध्ययन सूत्र के नववें अध्ययन की पहली गाथा के अनुसार मोहनीय कर्म की उपशान्ति से जातिस्मरण ज्ञान होता है। इसका यह कारण हो सकता है कि मोहनीय कर्म की उपशांति से होने वाला जातिस्मरण ज्ञान, ज्ञान रूप होता है, अनुपशांति से होने वाला जाति स्मरण ज्ञान अज्ञान रूप होता है। क्योंकि जातिस्मरणज्ञान ज्ञान और अज्ञान दोनों तरह का होता है । सम्यग्दृष्टि मतिज्ञानी का जातिस्मरण ज्ञान रूप तथा मिथ्यादृष्टि मतिअज्ञानी का जातिस्मरण अज्ञान रूप है, अतः यहाँ सम्यग्ज्ञान उत्पन्न हुआ, यह बताने के लिए मोहनीय कर्म की उपशांति बताई गई।
श्वेताम्बर और दिगम्बर परम्परा में मतिज्ञान के स्वरूप में अन्तर -
प्रस्तुत अध्याय का अध्ययन करने पर श्वेताम्बर और दिगम्बर परम्परा में मतिज्ञान के स्वरूप में निम्न अन्तर प्रतीत हुए जो निम्न प्रकार से हैं -
1. श्वेताम्बर परम्परा में मतिज्ञान के श्रुतनिःसृत और अश्रुतनिःसृत भेद प्राप्त होते हैं, जबकि दिगम्बर परम्परा में ये भेद प्राप्त नहीं होते हैं ।
2. श्वेताम्बर परम्परा में अश्रुतनिःसृत मति के औत्पतिकी आदि चार भेद हैं, जबकि धवला टीका में औत्पतिकी आदि चार बुद्धि का वर्णन प्रज्ञाऋद्धि के अन्तर्गत किया गया है।
3. श्वेताम्बर में परम्परा श्रुतनिःसृत मतिज्ञान के अवग्रहादि चार भेद किये गये हैं, जबकि दिगम्बर परम्परा में अवग्रह आदि चार का उल्लेख सामान्य रूप में ही किया गया है।
4. श्वेताम्बर परम्परा में प्रज्ञा का सम्बन्ध श्रुतनिश्रित मति के साथ जोड़ा है, जबकि दिगम्बर परम्परा में इसका सम्बन्ध अश्रुतनिश्रित के साथ जोड़ा गया है ।
5. औत्पातिकी बुद्धि के लिए श्वेताम्बर साहित्य में पूर्वजन्म में सीखे हुए चौदह पूर्व की विस्मृति और उत्तरवर्ती मनुष्य भव में पुनः प्रकट होने का उल्लेख नहीं मिलता है, जबकि दिगम्बर साहित्य में ऐसा उल्लेख प्राप्त होता है ।