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विशेषावश्यकभाष्य एवं बृहद्वृत्ति के आलोक में ज्ञानमीमांसीय अध्ययन
5. काल द्वार
मतिज्ञान का काल दो प्रकार का होता है - उपयोगकाल और लब्धिकाल। मतिज्ञान की अपेक्षा एक जीव का उपयोग काल जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त का है, उसके बाद उपयोगान्तर होता है। सम्पूर्ण लोक रूप सभी आभिनिबोधिक ज्ञानोपयोगकाल भी जघन्य और उत्कृष्ट की अपेक्षा से अन्तर्मुहूर्त प्रमाण हैं, लेकिन यह काल एक जीव की अपेक्षा से बड़ा है।
लब्धि की अपेक्षा से मतिज्ञान का कालमान - जिसने सम्यक्त्व प्राप्त किया है, ऐसे एक जीव के मतिज्ञानावरण के क्षयोपशम रूप आभिनिबोधिक ज्ञान की लब्धि का काल जघन्य से अन्तर्मुहूर्त का है। इसके बाद मिथ्यात्व अथवा केवलज्ञान की प्राप्ति होती है। उत्कृष्ट की अपेक्षा से मतिज्ञान का लब्धि काल छासठ सागरोपम का होता है।
मतिज्ञानावरण के क्षयोपशम रूप को लब्धि कहते हैं। वह लब्धि द्रव्यादि उपयोग वाले के अथवा बिना उपयोग वाले के उस क्षेत्र में अथवा अन्य क्षेत्र में होती है। इस प्रकार क्षयोपशम रूप लब्धि 66 सागरोपम साधिक निरंतर अवस्थित रहती है। जैसे कोई साधु करोड़पूर्व तक संयम का पालन करके मतिज्ञान सहित चार अनुत्तर विमान में से किसी विमान में देव के रूप में 33 सागरोपम की स्थिति में उत्पन्न हुआ है, वहाँ से च्यव कर पुनः मनुष्य में आकर करोड़पूर्व तक संयम का पालन करता है, पुनः चार अनुत्तर विमान में देव के रूप में 33 सागरोपम की स्थिति में उत्पन्न होता है। पुनः मनुष्य में आकर करोड़ पूर्व का संयम पालन करके वह मोक्ष गति को प्राप्त करता है। इस प्रकार दो देवभव के 33+33=66 सागरोपम और मनुष्य भव की स्थिति जितना अधिक काल मिलाकर कुल 66 सागरोपम साधिक काल होता है। अथवा अच्युत नामक बारहवें देवलोक में 2222 सागरोपम के तीन भव करता है, तो भी इतना काल घटित होता है। अतः 66 सागरोपम काल तक मतिज्ञान साथ में रहता है, इसलिए लब्धिरूप मतिज्ञान का अवस्थित काल 66 सागरोपम साधिक होता है। उपर्युक्त मतिज्ञान के उपयोग और लब्धि का जो अवस्थान काल बताया है, वह उत्कृष्ट अवस्थान काल है, जघन्य अवस्थान काल तो एक समय का होता है। अनेक मतिज्ञानी जीवों की अपेक्षा मतिज्ञान का कालमान सर्वकाल है।38 6. अन्तर द्वार
एक जीव की अपेक्षा से - एक जीव सम्यक्त्व प्राप्त कर के मतिज्ञानी हुआ और पुनः सम्यक्त्व से भ्रष्ट होकर अन्तर्मुहूर्त तक मिथ्यात्व में रहकर पुनः सम्यक्त्व प्राप्त करके मतिज्ञानी हो सकता है, इस प्रकार मतिज्ञान का जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त का है। आशातना आदि दोषों की बहुलता के कारण सम्यक्त्व से भ्रष्ट जीव उत्कृष्ट कुछ कम अर्द्धपुद्गलपरार्वतन तक सम्यक्त्व को प्राप्त नहीं करता है। इस प्रकार मतिज्ञान का उत्कृष्ट अन्तर देशोन अर्द्धपुद्गल परावर्तन का है। इसके बाद तो वह जीव पुनः सम्यक्त्व प्राप्त कर मतिज्ञानी होता ही है। बहुत जीवों की अपेक्षा से मतिज्ञान का अन्तर नहीं है, क्योंकि सम्पूर्ण लोक में सर्वदा कोई जीव मतिज्ञानी होता ही है।39 7. भाग द्वार
मतिज्ञानवाले जीव शेष ज्ञान और अज्ञान वाले जीवों की अपेक्षा अनन्तवें भाग है, क्योंकि शेष ज्ञान वाले केवलज्ञानी सहित अनन्त हैं और अज्ञानियों में वनस्पति सहित अनन्त अज्ञानी होते हैं। मतिज्ञान वाले तो सर्वलोक में भी असंख्याता ही है।540 538. विशेषावश्यकभाष्य, गाथा 436
539. विशेषावश्यकभाष्य, गाथा 437 540. विशेषावश्यकभाष्य, गाथा 438