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[204] विशेषावश्यकभाष्य एवं बृहवृत्ति के आलोक में ज्ञानमीमांसीय अध्ययन ____16. पर्याप्त द्वार - पर्याप्त (छह पर्याप्ति पर्याप्त) में पूर्वप्रतिपन्न की अपेक्षा मतिज्ञान की नियमा और प्रतिपद्यमान की अपेक्षा से भजना होती है। अपर्याप्त में पूर्वप्रतिपन्न की अपेक्षा मतिज्ञान की भजना है तथा प्रतिपद्यमान की अपेक्षा से मतिज्ञान नहीं होता है। नो अपर्याप्त नो पर्याप्त में भी मतिज्ञान नहीं होता है।
17. सूक्ष्म द्वार - सूक्ष्म में दोनों अपेक्षा से मतिज्ञान नहीं होता है। बादर में पूर्वप्रतिपन्न की अपेक्षा मतिज्ञान की नियमा और प्रतिपद्यमान की अपेक्षा से भजना होती है। नो सूक्ष्म नो बादर में भी मतिज्ञान नहीं होता है।
18. संज्ञी द्वार - दीर्घकालिक संज्ञा की अपेक्षा जो संज्ञी है, उनमें पूर्वप्रतिपन्न की अपेक्षा मतिज्ञान की नियमा और प्रतिपद्यमान की अपेक्षा से भजना होती है। असंज्ञी में पूर्वप्रतिपन्न की अपेक्षा से मतिज्ञान हो सकता है और प्रतिपद्यमान की अपेक्षा से मतिज्ञान नहीं होता है। क्योंकि जो असंज्ञी सास्वादन समकित सहित पूर्वभव से आता है तो उसमें पूर्वप्रतिपन्न की अपेक्षा मतिज्ञान हो सकता है, लेकिन प्रतिपद्यमान में वैसी विशुद्धि नहीं होने से उसको मतिज्ञान नहीं होता है। नो संज्ञी नो असंज्ञी में भी मतिज्ञान नहीं होता है। ___19. भव्य द्वार - जिनमें मुक्त होने की योग्यता नहीं होती, वे जीव अभवी और जिनमें मोक्षगमन की योग्यता होती है। वे जीव भव्य कहलाते हैं। नो भवी और नो अभवी उपर्युक्त दोनों लक्षणों से रहित होते हैं।
भवी में पूर्वप्रतिपन्न की अपेक्षा मतिज्ञान की नियमा और प्रतिपद्यमान की अपेक्षा से भजना होती है। अभवी और नो भवी नो अभवी में दोनों अपेक्षा से मतिज्ञान नहीं होता है।
20. चरमद्वार-चरम में भवी के समान होता है। अचरम में दोनों अपेक्षाओं से मतिज्ञान नहीं होता है।
संसार का अन्त करने वाले और मोक्षगमन के योग्य भवी जीव चरम कहलाते हैं। संसार का अन्त नहीं करने वाले और मोक्षगमन के अयोग्य अभवी जीव अचरम कहलाते हैं तथा सिद्ध भी अचरम कहलाते हैं, क्योंकि उन्होंने सिद्धत्व को प्राप्त किया है, अब उसका कभी अन्त नहीं होने वाला है। इसलिए सिद्ध भी अचरम है।
मलधारी हेमचन्द्र ने नो चरम नो अचरम से सिद्धों का कथन किया है,534 लेकिन आगमों में चरम, अचरम ये दो ही भेद प्राप्त होते हैं, नो चरम नो अचरम ऐसा उल्लेख नहीं मिलता है। प्रज्ञापनावृत्ति में मलयगिरि ने सिद्धों का ग्रहण अचरम में ही किया है। 2. द्रव्य प्रमाण द्वार
लोक में किसी भी एक समय में आभिनिबोधिक ज्ञान वाले का प्रमाण कितना होता है, यह द्रव्य प्रमाण कहलाता है। इसे जीव प्रमाण भी कहते हैं। इसका तात्पर्य यह है कि एक समय में मतिज्ञान को कितने जीव जानते हैं? सब जानते हैं या कुछ जानते हैं?
पूर्वप्रतिपन्न की अपेक्षा से जघन्य और उत्कृष्ट मतिज्ञानी क्षेत्र पल्योपम के अंख्यातवें भाग प्रदेश राशि प्रमाण होते हैं, लेकिन जघन्य से उत्कृष्ट विशेषाधिक होते हैं। प्रतिपद्यमान की अपेक्षा एक समय में मतिज्ञान वाले होते हैं अथवा नहीं भी होते हैं, जो होते हैं, तो एक समय में जघन्य एक और उत्कृष्ट क्षेत्र पल्योपम के असंख्यातवें भाग के प्रदेशों की संख्या प्रमाण होते हैं। 534. नो चरमा-ऽचरमाणां च सिद्धानां केवलज्ञानं प्राप्यते। - मलधारी हेमचन्द्र, विशेषावश्यकभाष्य बृहद्वृत्ति, पृ. 339