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तृतीय अध्याय - विशेषावश्यकभाष्य में मतिज्ञान
[181] द्वारा वृक्ष और पुरुष में से पक्षियों के घोंसले आदि को देखकर वृक्ष का निश्चय करना अपाय है, परन्तु जो सद्भूतपदार्थ (वृक्ष) से अन्य है अथवा उसका विपक्षी (पुरुष) जो वहाँ पर विद्यमान नहीं है, उसके विशेष धर्म जैसे कि सिर खुजलाना, चलना, हिलना आदि का सन्मुख स्थित पदार्थ (वृक्ष) में अपनयन अर्थात् निषेध करने को अपाय मानते हैं। उनके अनुसार 'अपनयनम् अपायः' अर्थात् अन्य वस्तु का निषेध ही अपाय है।
जिनभद्रगणि के अनुसार किसी को तो सद्भूत पदार्थ में तद्भिन्न के व्यतिरेक (अभाव) मात्र से निश्चय होता है, किसी को सद्भूत पदार्थ में रहने वाले अन्वय धर्मों (सहभावी धर्मों) का समन्वय (घटित) होने मात्र से, तो किसी को अन्वय और व्यतिरेक दोनों से अपाय (निश्चय) हो सकता है। किन्तु अन्य आचार्यों के मत से 'तदन्यविशेष-अपनयन मात्र' को अपाय स्वीकार करना और 'सद्भूतपदार्थविशेष-अवधारण' को 'अपाय' नहीं मानकर 'धारणा' मानना उचित नहीं है।109 उपर्युक्त कथन का तात्पर्य यह है कि कुछ आचार्य केवल अन्वय धर्म, कुछ केवल व्यतिरेक धर्म से और कुछ अन्वय और व्यतिरेक दोनों धर्मों से अवाय ज्ञान होना स्वीकार करते हैं। जो कि स्याद्वाद सिद्धान्त के अनुसार सही है, किन्तु जो एकांत रूप से कथन करते हैं, उनका मत अनुचित है। अवाय का प्रामाण्य
ईहा का प्रामाण्य स्वीकार करने से अवाय का प्रामाण्य स्वतः स्वीकृत हो जाता है। विद्यानंद के अनुसार अवाय और धारणा गृहीतग्राही होने से अप्रमाण रूप नहीं हैं, अन्यथा अनुमान भी अप्रमाण की श्रेणी में आ जायेगा, जो उचित नहीं है। अवग्रह, ईहा आदि उत्तरोत्तर विशेष ज्ञान के सूचक हैं, इसलिए ये अप्रमाण रूप नहीं हो सकते हैं। 10 अवाय के भेद
अवाय के छह भेद हैं - 1. श्रोत्रेन्द्रिय अवाय, 2. चक्षुरिन्द्रिय अवाय 3. घ्राणेन्द्रिय अवाय 4. जिह्वेन्द्रिय अवाय, 5. स्पर्शनेन्द्रिय अवाय तथा 6. अनिन्द्रिय अवाय।। अवाय के पर्यायवाची नाम
नंदीसूत्र में अवाय के पाँच पर्यायवाची नामों का उल्लेख है, यथा आवर्तनता, प्रत्यावर्तनता, अवाय, बुद्धि और विज्ञान। विशेष अपेक्षा से ये पांचों अवाय की विभिन्न अवस्थाएं हैं। 12 पांचों पर्यायवाची शब्दों के अर्थ की व्याख्या नंदीचूर्णि, हारिभद्रीय वृत्ति और मलयगिरि वृत्ति-13 के आधार पर निम्न प्रकार से है -
1. आवर्तनता - ईहा से अवाय की ओर मुड़ना अर्थात् अर्थ के स्वरूप का ज्ञान (परिच्छेद) होना आवर्तनता है। जैसे स्थाणु के प्रति यह निर्णय होना कि इसमें स्थाणु में पाये जाने वाले धर्म मिलते हैं, अतएव यह स्थाणु होना चाहिए। यह अवाय की पहली अवस्था है।
__2. प्रत्यावर्तनता - ईहा से अवाय के सन्निकट पहुँच जाना अर्थात् निश्चित किये गये अर्थ के स्वरूप की बार-बार आलोचना करना प्रत्यावर्तनता है। जैसे स्थाणु के प्रति यह निर्णय होना कि 'यह स्थाणु ही होना चाहिए।' यह अवाय की दूसरी अवस्था है। 409. विशेषावश्यकभाष्य, गाथा 185-186-187 409. तत्त्वार्थराजवार्तिक 1.15.6-7, न्यायकुमुदचन्द्र पृ. 173, 'अवग्रहादीनां वा क्रमोपजनधर्माणां पूर्वं पूर्वं प्रमाणमुत्तरमुत्तर फलम्'
___ - प्रमाणमीमांसा 1.1.39 410. तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक 1.15.66
411. नंदीसूत्र, पृ. 132 412. नंदीसूत्र, पृ. 132
413. नंदीचूर्णि, पृ. 60, हारिभद्रीय, पृ. 60, मलयगिरि, पृ. 176