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विशेषावश्यकभाष्य एवं बृहद्वृत्ति के आलोक में ज्ञानमीमांसीय अध्ययन
वीरसेनाचार्य के अनुसार संशय का निराकरण होने के बाद स्वगत लिंग का जो निर्णयात्मक ज्ञान होता है, वह अवाय कहलाता है । 398
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अवाय के लिए प्रयुक्त शब्द
जैनागम और अन्य ग्रन्थों में अवाय के लिए विभिन्न शब्दों का प्रयोग हुआ है, यथा आगम में 'अपोह' 1509 और अवाओ, अवाए' 400 तथा आवश्यक नियुक्ति में दोनों शब्द मिलते हैं नंदीसूत्र में 'अवाय' और 'अपाय' इन दो शब्दों का प्रयोग, तत्त्वार्थसूत्र, षट्खण्डागम में 'अवाय' का प्रयोग हुआ है 103 जिनदासगणी आदि ने 'अवाय' का और हरिभद्र ने 'अपाय' का404 और जिनभद्रगणि, अकलंक, मलयगिरि, यशोविजय आदि आचार्यों ने दोनों शब्दों का प्रयोग किया है । परन्तु मुख्य रूप से ज्ञान चर्चा में 'अवाय' का ही प्रयोग हुआ है।
अकलंक ने दोनों शब्दों के उपयोग का कारण बताते हुए कहा है कि 'यह पुरुष दक्षिणी नहीं है' जिस समय ऐसा अपाय अर्थात् निषेध किया है, उस समय 'उत्तरी है' इस अर्थ से अवाय का ग्रहण होता है और जिस समय 'यह उत्तरी है' इसका ग्रहण होता है, उस समय 'यह दक्षिणी नहीं है' इसका निषेध हो जाता है अर्थात् 'अपाय' में त्यागात्मक अंश मुख्य है और विध्यात्मक अंश गौण है। जबकि ‘अवाय' में विध्यात्मक अंश मुख्य और त्यागात्मक अंश गौण रूप से है। अतः एक का ग्रहण करने से दूसरे का ग्रहण अपने आप हो जाता है। 106
अवाय औपचारिक अर्थावग्रह
भाष्यकार और टीकाकार के अनुसार निश्चय रूप से विषय का एक बार अवाय ज्ञान हो जाने पर, सर्वत्र अन्तिम विशेष तक बारबार ईहा और अपाय होते रहते हैं, अर्थावग्रह नहीं होता । प्रथम एक समय के अव्यक्त सामान्य मात्र ज्ञान में अर्थावग्रह होता है, ईहा और अपाय नहीं होते हैं। सांव्यवहारिक दृष्टि के अनुसार उत्तरोत्तर ईहा और अपाय की अपेक्षा तथा भावी विशेष बोध की अपेक्षा से अपाय को भी औपचारिक अर्थावग्रह कहा जा सकता है
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अवग्रह व अवाय में अन्तर
अवग्रह और अवाय इन दोनों ज्ञानों के निर्णयत्व के सम्बन्ध में कोई भेद न होने से दोनों समान हो सकते हैं? इस प्रकार दोनों में समानता होने पर भी विषय और विषयी के सन्निपात के अनन्तर उत्पन्न होने वाला प्रथम ज्ञानविशेष अवग्रह है और ईहा के अनन्तर काल में उत्पन्न होने वाला सन्देह रहित ज्ञान अवाय ज्ञान होता है, इसलिए अवग्रह और अवाय, इन दोनों ज्ञानों में एकता नहीं है 1408 अवाय के सम्बन्ध में मतान्तर
कतिपय आचार्य सद्भूत पदार्थ से भिन्न वस्तु में रहने वाले विशेषों के निषेध (अपनयन) मात्र को अपाय कहते हैं तथा सद्भूत पदार्थ के विशेषों के अवधारण को धारणा कहते हैं। जैसे की ईहा
398. धवला पु. 13, सू. 5.5.23 पृ. 218
399. 'ईहापोह - मग्गण - गवेसणं करेमाणस्स' भगवतीसूत्र श. 11 उ. 11 पृ. 97
401. आवश्यकनिर्युक्ति गाथा 2, 21
404. नंदीचूर्णि पू. 56 हारिभद्रीय पृ. 57
400. नंदीसूत्र, पृ. 126, 132
402. युवाचार्य मधुकरमुनि, नंदीसूत्र, 'अवाओ' (पृ. 126 ) 'अपोह' (पृ. 144 )
403. तत्त्वार्थसूत्र 1.15, षट्खण्डागम पु. 13, सू. 5.5.23, पृ. 216
405. विशेषावश्यकभाष्य गाथा 178, 561, राजवार्तिक 1.15.13, मलयगिरि पृ. 168, जैनतर्कभाषा पृ. 7, 17
406. राजवार्तिक 1.15.13
408. षट्खण्डागम (धवला टीका), पु. 9 सू. 4.1.45 पृ. 144
407. मलधारी हेमचन्द्र वृत्ति, गाथा 285 पृ. 142