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तृतीय अध्याय - विशेषावश्यकभाष्य में मतिज्ञान
[171] होता है। उसको क्रमशः चक्षुदर्शन और अचक्षुदर्शन कहते हैं। इस प्रकार अवग्रह ज्ञान से चक्षुदर्शन
और अचक्षुदर्शन भिन्न है। अचक्षु शब्द से प्रायः चक्षु से भिन्न सारी इन्द्रियों का ग्रहण किया जाता है, किन्तु सिद्धसेन के मत में अचक्षु शब्द से मात्र मन ही गृहीत होता है।36
विशेषावश्यकभाष्य में जिनभद्र क्षमाश्रमण दर्शन का विशद विवेचन नहीं करते हैं, किन्तु एक स्थान पर उन्होंने अवग्रह और ईहा को दर्शन रूप में स्वीकार करने का संकेत किया है, यथा - अवाय और धारणा ज्ञान है तथा अवग्रह एवं ईहा का दर्शन होना इष्ट है। 37 यदि इस मत को स्वीकार करने पर विचार करें तो अवायज्ञान का ही ज्ञान के भेदों में समावेश होता है, उसके पूर्व होने वाले अवग्रह और ईहाज्ञान सामान्यग्राही होने के कारण दर्शन के ही अंग सिद्ध होते हैं।
दर्शन और ज्ञान के मध्य प्राय: साकार और निराकार के आधार पर भेद किया जाता है। दर्शन निराकार और निर्विकल्पक होता है, ज्ञान साकार और सविकल्पक कहा जाता है। अवग्रह में विशेषत: अर्थावग्रह में निर्विकल्पकता और निराकारता प्राप्त होती है, अतः जिनभद्र के मत में किसी अपेक्षा से अवग्रह भी दर्शन हो सकता है।
वीरसेनाचार्य ने धवला टीका में दर्शन और ज्ञान के स्वरूप का विचार करते हुए दर्शन को आत्मप्रकाशक और ज्ञान को परप्रकाशक माना है।38 किन्तु यह मत भी आगम परम्परा के अनुकूल नहीं है, क्योंकि तब चक्षुदर्शन आदि दर्शन के भेद घटित नहीं हो सकते। चक्षुदर्शन आदि परप्रकाशक दिखाई देते हैं। दिगम्बर आगमों की मान्यता है कि स्वरूप का ग्रहण दर्शन है, किन्तु आचार्य विद्यानन्द ने इस मान्यता का खण्डन किया है, यथा - आत्मग्रहण भी दर्शन नहीं है, क्योंकि चक्षु, अवधि और केवलदर्शन के अभाव का प्रसंग आता है। कुछ दिगम्बर दार्शनिक न्यायशास्त्र की अपेक्षा सामान्य ग्रहण को दर्शन तथा सिद्धांत की अपेक्षा से स्वरूपग्रहण को दर्शन प्रतिपादित करते हैं ।40
पूज्यपाद, अकलंक, विद्यानंद आदि दिगम्बर दार्शनिक और हेमचन्द्र, देवसूरि आदि श्वेताम्बर दार्शनिक 'दर्शन सामान्यग्राही होता है' ऐसा मानते हुए उसका सत्तामात्र विषय अंगीकार करते हैं। सत्तामात्र के ग्राहक उस दर्शन को वे अवग्रह से पूर्व रखते हैं। उनके मत में विषय और विषयी के सन्निपात (सन्निकर्ष) के होने पर दर्शन होता है तथा उसके पश्चात् अवग्रह होता है। इस प्रकार प्रमाणशास्त्रीय संन्दर्भ में क्रमभेद से दर्शन और अवग्रह में भेद स्वीकार किया गया है। अवग्रह और संशय में अन्तर ___ अवग्रह में ईहा की अपेक्षा होने से लगभग संशयरूपता ही है। ऐसा कहना सही नहीं, क्योंकि अवग्रह और संशय के लक्षण जल और अग्नि की तरह अत्यन्त भिन्न हैं, अतः दोनों अलग-अलग हैं। जैसेकि संशय स्थाणु पुरुष आदि अनेक पदार्थों में दोलित रहता है, अनिश्चयात्मक होता है और स्थाणु पुरुषादि में से किसी का निराकरण नहीं करता, जबकि अवग्रह एक ही अर्थ को विषय करता है, निश्चयात्मक है और स्व विषय में भिन्न पदार्थों का निराकरण करता है। अर्थात् संशय निर्णय का विरोधी होता है, अवग्रह नहीं।47 336. सिद्धसेन दिवाकर, "सन्मतिप्रकरण" गाथा 2.23-25 337. नामवाय-धिईओ, दंसणमिळं जहोग्गहे-हाओ। तह तत्तरुई सम्मं, रोइज्जइ जेण तं नाणं। - विशेषावश्यकभाष्य, गाथा 536 338. अन्तर्बहिर्मुखयोश्चित्प्रकाशयोर्दर्शनज्ञानव्यपदेशभाजोरेकत्वविरोधात्। -षट्खण्डागम (धवला), पु. 1, सूत्र 1.14 पृ. 145 339. तत्त्वार्थश्लोकवार्तिकवृत्तिः, 1.15.15
340. कैलाशचन्द्र शास्त्री, 'जैनन्याय', पृष्ठ 147 341. राजवार्तिक 1.14.7-10 पृ. 60, धवला पु. 9, सू. 4.1.45, पृ. 145, न्यायद्वीप अधिकार 2.11.31