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[170] विशेषावश्यकभाष्य एवं बृहवृत्ति के आलोक में ज्ञानमीमांसीय अध्ययन निश्चयात्मक होता है तथा विशद होता है। विद्यानन्द प्रत्यक्ष प्रमाण में निश्चयात्मकता को अंगीकार करके भी शब्द योजना को आवश्यक नहीं मानते हैं। शब्द योजना से रहित होने की अपेक्षा वे प्रत्यक्ष को कथञ्चित् निर्विकल्पक भी मानते हैं।32 तत्त्वबोधविधायिनी के रचयिता अभयदेवसूरि भी इसी प्रकार प्रत्यक्ष में निर्विकल्पकता को (कथञ्चिद्) स्वीकार करते हैं।
वीरसेनाचार्य मानते हैं कि यदि अवग्रह निर्णयात्मक होता है तो उसका अन्तर्भाव अवाय में होना चाहिए और यदि वह अनिर्णय रूप होता है तो वह प्रमाण नहीं हो सकता। इसके लिए वीरसेनाचार्य ने विशदावग्रह को निर्णयात्मक अविशदावग्रह को अनिर्णयात्मक प्रतिपादित किया है। 33
इस प्रकार जिनभद्रगणि के मत में उपचरित अर्थावग्रह, अकलंक, विद्यानन्द आदि के मत में वर्णित अर्थावग्रह और वीरसेनाचार्य के मत में विशदावग्रह स्वरूप जो अर्थावग्रह है, वह प्रत्यक्षप्रमाण सिद्ध होता है।
सारांश - उपर्युक्त वर्णन के आधार पर हम कह सकते हैं कि व्यंजनावग्रह अनध्यवसाय सहित होने से, निर्णय रूप नहीं होने से प्रमाण तथा अविशद होने से प्रत्यक्ष रूप नहीं है। अर्थावग्रह व्यवसायात्मक तथा संशय, विपर्यय एवं अनध्यवसाय से रहित होने से प्रमाण तथा विशद होने से प्रत्यक्ष रूप है 34 दर्शन और अवग्रह में भेदाभेद
जैनदर्शन में 'ज्ञान के पूर्व दर्शन होता है' यह प्रसिद्ध सिद्धांत है। दर्शन के अनन्तर ही ज्ञान होता है, यह सुनिश्चित क्रम है। अवग्रह मतिज्ञान का भेद होने के कारण ज्ञानात्मक होता है, अत: उससे पूर्व दर्शन होना चाहिए, किन्तु दर्शन और अवग्रह के स्वरूप का जब दार्शनिकों के द्वारा विवेचन किया जाता है तब इन दोनों की पृथक्ता बतलाना कठिन हो जाता है। संक्षेप में यहाँ इसकी चर्चा की जा रही है। __आचार्य सिद्धसेन सन्मतितर्कप्रकरण35 में सामान्य ग्रहण दर्शन है तथा विशेष का ग्रहण ज्ञान है, ऐसी परिभाषा करते हैं। द्रव्यार्थिकनय से दर्शन सामान्यग्राही तथा पर्यायार्थिकनय से ज्ञान विशेषग्राही होता है। उनके मत में दर्शन और ज्ञान में ऐकान्तिक भेद नहीं है।
'जीव का लक्षण उपयोग है' यह जैन परम्परा में सर्वमान्य है। वह उपयोग ज्ञान और दर्शन के भेद से दो प्रकार का होता है। जब हमारे द्वारा वस्तु का सामान्य ग्रहण होता है तो दर्शनोपयोग होता है तथा जब विशेष ग्रहण होता है तो ज्ञानोपयोग कहा जाता है। (यह भी मान्यता है कि एक समय में एक ही उपयोग होता है एवं ये क्रम से होते रहते हैं। अन्तर्मुहूर्त में ये बदलते रहते हैं।)
यहाँ प्रश्न खड़ा होता है कि आचार्य जिनभद्र अर्थावग्रह को सामान्यग्राही मानते हैं और सिद्धसेन दर्शन को सामान्यग्राही मानते हैं तब दर्शन और अर्थावग्रह के स्वरूप में कोई भेद है या नहीं? आचार्य सिद्धसेन कहते हैं कि अवग्रहज्ञान दर्शन से भिन्न है। यदि अवग्रहज्ञान को दर्शन माना जाय तो सम्पूर्ण मतिज्ञान को दर्शन मानना होगा। तब फिर दर्शन और ज्ञान के मध्य भेद सिद्ध नहीं किया जा सकेगा। अत: मतिज्ञान से अस्पृष्ट एवं अविषयभूत अर्थ में दर्शन प्रवृत्त होता है। मतिज्ञान में चक्षु एवं मन से व्यंजनावग्रह स्वीकार नहीं किया जाता, तब इन दोनों (चक्षु एवं मन) से दर्शन
332. तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक, 1.12.26-27
333. षट्खण्डागम (धवला टीका), पु. 9/4.1.45, पृ.145 334. 'जैनप्रमाणशास्त्रेऽवग्रहस्य स्थानम्' स्वाध्याय शिक्षा, जुलाई, 1994 335. जं सामण्णगहणं दंसणमेयं विसेसियं नाणं । दोण्ह वि णयाण एसो पाडेक्कं अत्थपज्जाओ। - सन्मतितर्कप्रकरण, गाथा 2.1