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[168] विशेषावश्यकभाष्य एवं बृहवृत्ति के आलोक में ज्ञानमीमांसीय अध्ययन
पूर्वपक्ष - व्यंजनावग्रह में ज्ञान भी होता है और वह अव्यक्त रहता है, यह कैसे घटित होगा? उत्तरपक्ष - यह ज्ञान छोटीसी चिनगारी रूप प्रकाश की तरह सूक्ष्म होने के कारण अव्यक्त है, जैसे कि सोये हुए, नशे में रहे हुए तथा मूर्च्छित आदि व्यक्तियों को ज्ञान का स्वयं संवदेन नहीं होता है, फिर भी उनमें ज्ञान की सत्ता तो है, वैसे ही व्यंजनावग्रह भी अव्यक्त ज्ञान रूप है।
पूर्वपक्ष - यदि सोये हुए व्यक्तियों को अपने ज्ञान का स्व-संवेदन नहीं होता है, तो उनमें ज्ञान का अस्तित्व कैसे होता है? उत्तरपक्ष - सोये हुए व्यक्ति स्वप्न आदि में बोलते हैं, आवाज आदि देने पर प्रत्युत्तर भी देते हैं, सोते हुए ही शरीर को फैलाना, सिकोड़ना, अंगड़ाई लेना आदि क्रियाएं करते हैं, लेकिन न तो उन्हें इन क्रियाओं का संवेदन होता है और न ही जागने के बाद उनका स्मरण रहता है। किन्तु ये क्रियाएं मतिज्ञान पूर्वक ही होती हैं, अन्यथा निर्जीव में भी यह क्रियाएं होनी चाहिए। अतः इन क्रियाओं के आधार पर सोये हुए व्यक्ति में ज्ञान का सद्भाव होता है। वैसे ही व्यंजनावग्रह में ज्ञान होता है ।24
पूर्वपक्ष - सोये हुए व्यक्ति में तो ज्ञान के अस्तित्व को उनके वचन आदि की चेष्टाओं से जाना जाता है, लेकिन व्यंजनावग्रह में तो ऐसा कोई कारण स्पष्ट नहीं जिससे उसे ज्ञान रूप स्वीकार किया जाएं? उत्तरपक्ष - जिनभद्रगणि कहते हैं कि व्यंजनावग्रह में तो प्रतिसमय असंख्यात समय तक श्रोत्रादि इंद्रियों के साथ शब्दादि विषय द्रव्यों का सम्बन्ध रहता है, यदि आप असंख्यात समय तक रहने वाले शब्दादि द्रव्य के होने पर भी व्यंजनावग्रह को अज्ञान रूप मानते हैं, तो चरम समय में होने वाले शब्दादि द्रव्यों में ज्ञानोत्पादकता का सामर्थ्य नहीं हो सकता है। अतः ऐसी स्थिति में अर्थावग्रह की उत्पत्ति नहीं हो पाएगी। इसलिए शब्दादि विषय द्रव्यों का श्रोत्रादि इन्द्रियों के साथ सम्बन्ध होता है, तब प्रथम समय में ही ज्ञान की कुछ-न-कुछ मात्रा (सत्ता) प्रतिसमय प्रवर्तमान रहती है, ऐसा मानना ही पड़ेगा। क्योंकि जो वस्तु पृथक्-पृथक् रूप से उपलब्ध नहीं होती है वह एक साथ भी नहीं हो सकती है। जैसेकि धूल के कणों में तैल नहीं है, तो उनको एक साथ इकट्ठा करने पर भी तैल नहीं हो सकता है। वैसे ही व्यंजनावग्रह के प्रत्येक समय में ज्ञान अंश को नहीं मानेंगे तो समुदाय में भी ज्ञानांश नहीं होगा। यदि पूर्वपक्ष समुदाय में ज्ञान को मानता है तो चरमान्त समय के अलावा शेष समयों में ज्ञान होता है। यदि पूर्वपक्ष मात्र समुदाय रूप में नहीं मानकर चरम समय में मानता है, तो वह ज्ञान समग्र रूप से अकस्मात् प्रकट नहीं होगा। इसलिए सभी समयों में ज्ञानांश मानना ही उचित है। अतः अर्थावग्रह होने के पूर्व समयों में जो ज्ञान अव्यक्त रूप से विद्यमान है, उसी को व्यंजनावग्रह कहा जाता है। चरम समय में वह अव्यक्त ज्ञान ही व्यक्त हो जाता है, उसी को अर्थावग्रह कहते हैं। अत: व्यंजनावग्रह ज्ञान रूप सिद्ध होता है।25 नंदीवृत्ति में मलयगिरि326 ने भी ऐसा ही उल्लेख किया है।
डॉ. धर्मचन्द जैन का अभिमत है कि व्यंजावग्रह का जो स्वरूप जैनाचार्यों ने बतलाया है वह तो किसी भी प्रकार प्रमाणकोटि में, विशेषतः प्रत्यक्षप्रमाण की कोटि में समाविष्ट नहीं हो सकता। जिनभद्रगणि आदि के मत में व्यंजनावग्रह इन्द्रिय एवं अर्थ के सम्बंध रूप होता है, अत: वह तो न्यायदर्शन में वर्णित इन्द्रियार्थसन्निकर्ष से अत्यन्त भिन्न नहीं है। इन्द्रियार्थ सन्निकर्ष जैनदर्शन में प्रमाण नहीं माना गया।
324. विशेषावश्यकभाष्य, गाथा 197-198 बृहवृत्ति सहित 325. विशेषावश्यकभाष्य, गाथा 200-203 बृहवृत्ति सहित
326. मलयगिरि पृ. 169