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तृतीय अध्याय
विशेषावश्यक भाष्य में मतिज्ञान
हान, उपादान एवं उपेक्षा बुद्धि में असमर्थ होने के कारण प्रमाणलक्षण से बहिर्भूत है । निर्विकल्पक दर्शन भी इस कारण से प्रमाणकोटि में समाविष्ट नहीं किया गया।
अकलंक आदि जो प्रमाणमीमांसीय परम्परा के आचार्य हैं, वे अवग्रह ज्ञान में प्रामाण्य स्थापित करने हेतु उसमें निर्णयात्मकता भी स्वीकार करते हैं । तत्त्वार्थवार्तिक में अकलंक ने अवग्रह एवं ईहाज्ञान में निर्णयात्मकता इस प्रकार सिद्ध की है - 'स्थाणु, पुरुष आदि अनेक अर्थों के आलम्बन रूप सन्निधान से संशय अनेकार्थात्मक होता है। अवग्रह एक पुरुष आदि अन्यतमात्मक होता है । संशय निर्णय विरोधी होता है, किन्तु अवग्रह नहीं, क्योंकि उसमें निर्णय होता दिखाई देता है। 321 तात्पर्य यह है कि अवग्रह ज्ञान संशय ज्ञान से भिन्न है । संशय अनेक अर्थों का आलम्बी एवं निर्णयविरोधी होता है, किन्तु अवग्रह में ऐसे दोष नहीं हैं। वह तो एकात्मक और निर्णयात्मक होता है इसलिए प्रमाण ही है। अकलंक ने ईहा को अवगृहीत अर्थ का आदान करने से निर्णयात्मक माना है, इसलिए ईहा भी प्रमाण है ।
यह उल्लेखनीय है कि आचार्य सिद्धसेन के टीकाकार अभयदेवसूरि साकार ज्ञान की भांति निराकार दर्शन को भी प्रमाण स्वीकार करते हैं । वे ही अकेले जैनाचार्य हैं जिन्होंने सामान्यग्राही दर्शन को भी विशेषग्राही ज्ञान की भांति प्रमाण माना है। उन्होंने कहा है- "निराकार और साकार उपयोग तो अपने से भिन्न आकार के सहयोगी बनकर अपने विषय के अवभासक रूप में प्रवृत्त होने से प्रमाण हैं, इतर आकार से रहित होकर नहीं। 322 यहाँ अभयदेवसूरि ने अनेकान्तदृष्टि को अपनाकर ज्ञानदर्शन की सापेक्ष प्रमाणता स्वीकार की है, ऐसा प्रतीत होता है ।
अवग्रह को प्रमाण रूप सिद्ध करके अब इसके दोनों भेदों में प्रमाण है कि नहीं इसकी समीक्षा करते हैं ।
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व्यंजनावग्रह प्रमाण नहीं है
व्यंजनावग्रह के प्रमाण रूप होने के सम्बन्ध में चर्चा करने से पूर्व व्यंजनावग्रह ज्ञान रूप है या नहीं इसकी चर्चा करते हुए जिनभद्रगणि ने व्यंजनावग्रह को ज्ञान रूप स्वीकार किया है। जिसका उल्लेख विशेषावश्यकभाष्य के आधार पर निम्न प्रकार से हैं।
व्यंजनावग्रह को ज्ञान रूप सिद्ध करने के लिए जिनभद्रगणि ने निम्न प्रकार से उल्लेख किया है
पूर्वपक्ष - जिस प्रकार बहरे मनुष्य के कान के साथ शब्द द्रव्य का संयोग होता है, परंतु संवेदन नही होने के कारण वह अज्ञान रूप है वैसे ही व्यंजनावग्रह के समय भी संवेदन नहीं होने से वह अज्ञानरूप है। उत्तरपक्ष - जिनभद्रगणि कहते हैं कि व्यंजनावग्रह का ग्रहण सूक्ष्म और अव्यक्त होने से उसका संवेदन अनुभव में नहीं आता है। फिर भी यह प्रथम समय से अंतिम समय तक ज्ञान रूप ही है।
पूर्वपक्ष - जैसे बधिर व्यक्ति को प्रारंभ में ज्ञान की अनुभूति नहीं होती वैसे ही व्यंजनावग्रह में इन्द्रिय और विषय के सम्बन्ध काल में ज्ञान की अनुभूति नहीं होती है, इसलिए व्यंजनावग्रह अज्ञान है । उत्तरपक्ष - जिनभद्रगणि कहते हैं कि यह कथन अयुक्त है क्योंकि व्यंजनावग्रह के अनन्तर (बाद में) ज्ञानात्मक अर्थावग्रह होता है । यद्यपि व्यंजनावग्रह में ज्ञान की अनुभूति नहीं होती, किन्तु वह ज्ञान का कारण है, अतः वह भी ज्ञान रूप ही है, लेकिन वह अल्प (अव्यक्त) रहता है 123
321. तत्त्वार्थराजवास्तिक 1.15
322. तत्त्वबोधविधायिनी ( सम्मतितर्कटीका) पृ. 458
323. विशेषावश्यकभाष्य गाथा 195 196