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तृतीय अध्याय - विशेषावश्यकभाष्य में मतिज्ञान
[163] व्यंजनावग्रह और अर्थावग्रह के स्वरूप में मतभेद
व्यंजनावग्रह और अर्थावग्रह के स्वरूप को लेकर जैनदर्शन में प्रमुख रूप से तीन मत हैं, जिनका उल्लेख डॉ. धर्मचन्द जैन ने इस प्रकार किया है।297
(1) प्रथम मत में पूजपाद देवनन्दी और अकलंक के अनुसार अव्यक्त ग्रहण व्यंजनावग्रह होता है तथा व्यक्त ग्रहण अर्थावग्रह होता है। जैसेकि व्यक्त ग्रहण से पूर्व व्यंजनावग्रह होता है और व्यक्त ग्रहण का नाम अर्थावग्रह है 298 जिस प्रकार नया सकोरा जल की दो तीन सूक्ष्म बूंदों से छींटे जाने पर गीला नहीं होता है, किन्तु वही सकोरा बार-बार छींटे जाने पर धीरे-धीरे गीला हो जाता है। इसी प्रकार शब्दादि विषयों के अव्यक्त ग्रहण को व्यंजनावग्रह एवं व्यक्त ग्रहण को अर्थावग्रह कहते हैं 99 आचार्य विद्यानन्द भी इसी मत का समर्थन करते हुए व्यंजनावग्रह को अस्पष्ट तथा अर्थावग्रह को स्पष्ट के रूप में निरूपित करते हैं।200
(2) द्वितीय मत जिनभद्र क्षमाश्रमण का है। इनके मत में व्यंजनावग्रह से पूर्व विषय एवं विषयी के सन्निपात से उत्पन्न दर्शन नहीं होता है। आगमपरम्परा के व्याख्याकर आचार्य जिनदासगणिमहत्तर, सिद्धसेनगणि, यशोविजय आदि इसके समर्थक हैं। व्यंजनावग्रह के स्वरूप का निर्देश करते हुए जिनभद्रगणि विशेषावश्यकभाष्य में कहते हैं - इन्द्रियलक्षण व्यंजन से शब्दादि परिणत द्रव्य के सम्बन्ध स्वरूप व्यंजन का अवग्रह व्यंजनावग्रह कहलाता है। व्यंजन के इन्द्रियादि तीन अर्थ किये हैं। यद्यपि व्यंजनावग्रह में ज्ञान का अनुभव नहीं होता है फिर भी ज्ञान का कारण होने से वह ज्ञान कहलाता है। अग्नि के एक कण की भांति उसमें अतीव अल्प ज्ञान स्वीकार किया जाता है।301
व्यंजनावग्रह के चरम समय में अर्थावग्रह होता है। जिनभद्रगणि ने अर्थावग्रह को सामान्य, अनिर्देश्य एवं स्वरूप नाम आदि की कल्पना से रहित माना है। 02 जैनागमों में अर्थावग्रह का काल एक समय ही माना गया है।03 समय काल का सबसे छोटा अविभाज्य अंश होता है। एक समय में नामादि की कल्पना होना संभव भी नहीं है। स्वरूप का निर्देश भी नहीं किया जा सकता है। आचार्य यशोविजयजी ने जैनतर्कभाषा में अर्थावग्रह का यही स्वरूप स्पष्ट किया है। इस द्वितीय मत का विस्तार से पूर्व में वर्णन करते हुए मतान्तरों का खण्डन कर दिया गया है।04
(3) तीसरे मत में वीरसेनाचार्य (9-10वीं शती) षट्खण्डागम की धवला टीका में "अप्राप्तार्थग्रहणमर्थावग्रहः" अप्राप्त अर्थ के ग्रहण करने को अर्थावग्रह कहते हैं और "प्राप्तार्थग्रहणं व्यंजनावग्रहः" प्राप्त अर्थ के ग्रहण करने को व्यंजनावग्रह कहते हैं 05 वे अकलंक के द्वारा दी गई परिभाषा का खण्डन करते हुए कहते हैं - "स्पष्ट ग्रहण अर्थावग्रह नहीं है, क्योंकि फिर अस्पष्ट ग्रहण को व्यंजनावग्रह मानना पड़ेगा। यदि ऐसा हो भी जाय तो चक्षु में भी अस्पष्ट ग्रहण होता दिखाई देता है, इसलिए उसमें भी व्यंजनावग्रह मानने का प्रसंग आता है और आगम में चक्षु एवं मन से व्यंजनावग्रह स्वीकार नहीं किया गया है।''306
297. 'जैनप्रमाणशास्त्रेऽवग्रहस्य स्थानम्' स्वाध्याय शिक्षा, जुलाई, 1994 298. पूज्यपाद, सर्वार्थसिद्धि 1.18, पृ. 117 299. सर्वार्थसिद्धि 1.18, राजवार्तिक 1.18.2 300. 'स्पष्टाभोऽक्ष-बलोद्भूतोऽस्पष्टो व्यंजनगोचरः।' - तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक 1.15.42, 1.18.4 से 9 301. मलधारि हेमचन्द्र बृहवृत्ति, विशेशावश्यकभाष्य, गाथा 194-196 302. विशेषावश्यकभाष्य, गाथा 252 303. 'उग्गहे इक्कसमए' - नन्दीसूत्र, सूत्र 61
304. द्रष्टव्य - प्रस्तुत अध्याय, पृ. 159-161 305. षट्खण्डागम (धवला टीका), पु. 1, सू. 1.1.115 पृ. 354 और 355 306, षट्खण्डागम (धवला टीका), पु. 13 सू. 5.5.24 पृ. 220