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________________ [162] विशेषावश्यकभाष्य एवं बृहद्वृत्ति के आलोक में ज्ञानमीमांसीय अध्ययन जिनदासगण आदि आचार्यों ने भी जिनभद्रगणि का समर्थन किया है। नंदीटीकाकारों के अनुसार वस्तु-ज्ञान के क्रम में सर्वप्रथम अनिर्देश्य सामान्य ज्ञान होता है और उसके बाद क्रमशः विशेषज्ञान होता है। परंतु उत्पलशतपत्रछेद न्याय के अनुसार शीघ्रता के कारण इसक्रम का ज्ञान नहीं होता है 291 तीसरा मतान्तर अर्थावग्रह आलोचनापूर्वक होता है, और यहाँ आलोचन को सामान्यग्राही माना गया है और अर्थावग्रह काल में शब्द रूपादि से भिन्न ज्ञात होता है। अलोचना ज्ञान को सांख्य, न्यायवैशेषिक आदि छहों वैदिक दर्शन भी स्वीकार करते हैं। 92 पूज्यपाद, अकलंक आदि आचार्यों ने अवग्रह के पहले दर्शन स्वीकार किया है 293 जिनभद्रगणि का समाधान इसके खण्डन के लिए वे प्रश्न करते हैं कि आलोचना ज्ञान व्यंजनावग्रह से पूर्व होता है, बाद में होता है या व्यंजनावग्रह है ? इनमें से प्रथम पक्ष उचित नहीं है, क्योंकि तब अर्थ एवं व्यंजन (इन्द्रिय) के सम्बंध का ही अभाव रहता है। बाद में भी आलोचना ज्ञान होना संभव नहीं है, क्योंकि व्यंजनावग्रह के चरम समय में अर्थावग्रह होता है । यदि व्यंजनावग्रह ही आलोचनाज्ञान है तो यह नामान्तरकरण ही हुआ। दूसरी बात यह है कि व्यंजनावग्रह अर्थशून्य (अर्थज्ञान से रहित) होता है इसलिए अर्थ का आलोचनाज्ञान तब भी होना उचित नहीं है । इसलिए अर्थावग्रह ही सामान्य अर्थ का ग्राहक है, इसके बाद कोई दूसरा आलोचन ज्ञान नहीं होता है। -** चौथा मतान्तर - कतिपय आचार्यों का मानना है कि अवग्रह कभी सामान्य रूप होता है, कभी विशेष रूप होता है, क्योंकि अवग्रह के बहु - बहुविध आदि 12 भेद होते हैं। अवग्रह के ये भेद एक समय में घटित नहीं हो सकते हैं। अतः ऐसा स्वीकार करना होगा कि अवग्रह भी बहुत समयों का होता है जिनभद्रगणि का समाधान यह मात्र पूर्वपक्ष का दुराग्रह है, क्योंकि यहां ग्रहण का अर्थ सामान्य अर्थ का ग्रहण होना है, अवगृहीत की ईहा होती है, ईहा युक्त निश्चय अपाय होता है। यशोविजयजी ने विशेष स्पष्टता करते हुए कहा है कि अवग्रह के क्षिप्र आदि भेद होने से विशेष ज्ञान होता है, ऐसा नहीं कह सकते हैं, क्योंकि ये भेद वास्तव में अवाय के हैं। परंतु कारण में कार्य का उपचार करके ही उन्हें अवग्रह के भेद मान सकते हैं अर्थात् अपाय कार्य है और अवग्रह तथा ईहा उसके कारण हैं । यहाँ उपचार का अर्थ है कि सामान्य मात्र ग्राहक एक समय का प्रथम अवग्रह नैश्चियक अवग्रह है, उसके बाद ईहित वस्तु के विशेष का ज्ञान जो होता है, वह अपाय है किन्तु वह पुनः होने वाली ईहा व अपाय की अपेक्षा से औपचारिक अवग्रह कहलाता है। चूंकि वह अपने भावी विशेष की अपेक्षा से सामान्य का ग्रहण होता है, इसलिए उसके बाद उसके विशेष की ईहा और उसका अपाय होता रहता है, इस प्रकार सामान्य व विशेष की अपेक्षा तब तक करते रहना चाहिए जब तक वस्तु का अन्तिम विशेष ज्ञान न हो जाए। 296 इस प्रकार भाष्यकार ने उनके समय में अथवा पूर्व से प्रचलित मतान्तरों का युक्तियुक्त समाधान करके आगमिक परम्परा को पुष्ट किया है। - 291. नंदीचूर्णि पृ. 63, हारीभद्रिय पृ. 65, मलयिगिर पृ. 180-181 292. प्रमाणमीमांसा भाषा टिप्पण पृ. 125 293. सर्वार्थसिद्धि 1.15, राजवार्तिक 1.15.1 धवला भाग 13, सू. 5.5.23 पृ. 216, प्रमाणमीमांसा 1.1.26 294. विशेषावश्यकभाष्य, गाथा 273-279 295. विशेषावश्यकभाष्य, गाथा 280 296. विशेषावश्यकभाष्य, गाथा 281-284
SR No.009391
Book TitleVisheshavashyakbhashya ka Maldhari Hemchandrasuri Rachit Bruhadvrutti ke Aalok me Gyanmimansiya Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPavankumar Jain
PublisherJaynarayan Vyas Vishvavidyalay
Publication Year2014
Total Pages548
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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