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[148] विशेषावश्यकभाष्य एवं बृहवृत्ति के आलोक में ज्ञानमीमांसीय अध्ययन
धवलाटीका के अनुसार - विनय सहित द्वादशांगी (बारह अंग) पढ़ने पर अथवा परोपदेश से जो बुद्धि उत्पन्न होती है, वह वैनयिकी कहलाती है। इस प्रकार धवलाटीका में द्वादशांग के अध्ययन से उत्पन्न बुद्धि अर्थ करके जिनभद्रगणि के दूसरे अर्थ का समर्थन किया गया है। मलयगिरि ने विनय के दूसरे अर्थ का समर्थन किया है।198
वैनयिकी बुद्धि के पन्द्रह दृष्टान्तों के नाम - 1. निमित्त, 2. अर्थशास्त्र, 3. लेख, 4. गणित, 5. कूप, 6. अश्व, 7. गर्दभ, 8. लक्षण, 9. ग्रन्थी, 10. औषधि, 11. रथिक, 12. गणिका 13. भीगी साड़ी, दीर्घतृण और कौञ्च पक्षी का वाम आवर्त, 14. नेवे का जल तथा 15. बैल, घोडा और वृक्ष से गिरना।99
दृष्टान्त - किसी गाँव में एक किसान रहता था। गुरु कृपा से वह भूगर्भ विज्ञान में बड़ा कुशल था। एक समय उसने गाँव के किसानों को बतलाया कि यहाँ इतना गहरा खोदने पर पानी निकल आयेगा। उसके कथनानुसार लोगों ने उतनी गहरी जमीन खोद डाली, फिर भी पानी नहीं निकला। तब किसान ने उनसे कहा कि इसके पास जरा एड़ी से प्रहार करो। उन्होंने जब एड़ी का प्रहार किया तो तत्काल पानी निकल आया। उस किसान की यह वैनेयिकी बुद्धि थी। 3. कार्मिकी
जो बुद्धि, सतत चिंतन के अन्तिम सार रूप हो और निरंतर कर्म के विशाल अनुभव युक्त हो तथा जिससे धन्यवाद के पात्र कार्य कर दिखाये जाये, उसे कार्मिकी बुद्धि कहते हैं अर्थात् जो बुद्धि काम करने से उत्पन्न हो, यह बुद्धि किसी भी विवक्षित कार्य में मन का उपयोग एकाग्र करने से उत्पन्न होती है और कार्य को शीघ्र अल्प परिश्रम से और सुन्दर रूप में सम्पादित करने की कुशलता उत्पन्न करती है। उसके पश्चात् भी ज्यों-ज्यों कार्य अधिक किया जाता है तथा ज्यों-ज्यों उसका उत्तरोत्तर विचार मन्थन होता है, त्यों-त्यों उस बुद्धि में विशालता आती जाती है। ४. कार्मिकी बुद्धि से किये गये कार्य से लोगों में विद्वानों द्वारा 'साधुवाद' और धनवानों से धन लाभ' प्राप्त होता है ।00 जिनभद्रगणि ने उपयोग के दो अर्थ किये हैं - चित्त की एकाग्रता और मन का आग्रह (अभिनिवेश)। हरिभद्र और मलयगिरि ने दूसरे अर्थ का समर्थन किया है। अतः कर्मजा बुद्धि की उत्पत्ति का मूल एकाग्रता, अभ्यास और मनन है।
धवलाटीका के अनुसार गुरु के उपदेश के बिना, तपश्चरण और औषध सेवन के बल से जो बुद्धि होती है, वह कर्मजा बुद्धि है 02 धवलाटीकार ने भी कर्मजा बुद्धि की प्राप्ति में आचार्य के उपेदश के तत्त्व को स्वीकार नहीं किया है। यह प्रतिदिन के कार्य के अनुभव पर आधारित है।
कार्मिकी बुद्धि के बारह दृष्टान्तों के नाम -1. हैरण्यक (सोनी), 2. कृषक, 3. कोलिकजुलाहा, 4. दर्वी-लुहार, 5. मौक्तिक-मणिहार, 6. घृत-घी वाला, 7. प्लवक-नट, तैराक, 8. तुन्नवाय-दर्जी, 9. वर्द्धकी-बढ़ई, 10. आपूपिक-हलवाई, 11. घटकार-कुंभार और 12. चित्रकारचितेरा 03
दृष्टान्त - घड़े बनाने में चतुर कुम्हार, पहले से उतनी ही प्रमाण युक्त मिट्टी उठा कर चाक पर रखता है कि जितने से घड़ा बन जाये। यह कर्मजा बुद्धि का उदाहरण है। 197. षट्खण्डागम, पु. १, पृ. 82
198. मलयगिरि पृ. 159 199. आवश्यकनियुक्ति गाथा 944-945, विशेषावश्यकभाष्य, स्वोपज्ञ गाथा 3608-3609 200. आवश्यकनिर्यक्ति गाथा 946 201. विशेषावश्यकभाष्य, स्वोपज्ञ गाथा 3610-3612, हारिभद्रीय पृ. 55, मलयगिरि पृ. 164 202. धवला पु. 9, सू. 4.1.18 पृ. 82 203. आवश्यकनियुक्ति गाथा 947, विशेषावश्यकभाष्य, स्वोपज्ञ गाथा 3616