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________________ तृतीय अध्याय - विशेषावश्यकभाष्य में मतिज्ञान [147] औत्पत्तिकी बुद्धि से जो काम किया जाता है, उसकी सफलता में कभी बाधा नहीं आती। यदि आ भी जाय, तो बाधा नष्ट हो जाती है और काम में सफलता प्राप्त होती है । षट्खण्डागम के अनुसार औत्पातिकी आदि चार बुद्धियों से विनयपूर्वक द्वादशांग को धारण करके मृत्यु के बाद देव में उत्पन्न होकर अविनष्ट संस्कार सहित मनुष्य भव में उत्पन्न होने के बाद श्रवण, अध्ययन आदि के बिना जो प्रज्ञा होती है, वह औत्पातिकी बुद्धि होती है। इस प्रकार औत्पातिकी बुद्धि के मूल में पूर्वभव में प्राप्त श्रुत को स्वीकार किया है । विनय से सीखा हुआ श्रुतज्ञान प्रमाद के कारण विस्मृत हो जाता है, वह परभव में पुनः स्मरण होकर औत्पितिक बुद्धि रूप होता है। 91 लेकिन श्वेताम्बर साहित्य में पूर्वजन्म में सीखे हुए चौदह पूर्व की विस्मृति और उत्तरवर्ती मनुष्य भव में पुनः प्रकट होने का उल्लेख नहीं मिलता है। - औत्पातिकी बुद्धि विषयक 27 दृष्टांत के नाम निम्न प्रकार से हैं। 1. भरत शिला 2. पणितहोड़ 3. वृक्ष 4. खुड्डग- अंगूठी 5 पट - वस्त्र 6. शरट-गिरगिट 7. काक 8. उच्चार - विष्ठा 9. गज 10. घयण भाण्ड 11 गोल 12 स्तंभ 13. क्षुल्लक बाल परिवाजक 14. मार्ग, 15. स्त्री 16. पति 17 पुत्र 18. मधु का छत्ता, 19. मुद्रिका, 20 अंक, 21. नाणक, 22. भिक्षु, 23. चेटक - बालक और निधान, 24. शिक्षा, 25. अर्थशास्त्र, 26. 'जो इच्छा हो वह मुझे देना' और 27. एक लाख 192 आवश्यकनिर्युक्ति और नंदीसूत्र में 'भरहसिल, पणिय....' के बाद 'भरहसिल मिंढ...' गाथा का क्रम है, जबकि विशेषावश्यकभाष्य में यह क्रम विपरीत है । ३ हरिभद्रीय वृत्ति और मलयगिरि वृत्ति वाले नंदीसूत्र में उक्त गाथाओं का क्रम आवश्यक निर्युक्ति के समान है । परन्तु मलयगिरि ने कथानक जिनभद्रगणि के क्रमानुसार दिये हैं। दृष्टान्त- कुछ यात्री वन में जा रहे थे। मार्ग में फलों से लदा हुआ आम का वृक्ष देखा और उसके फल खाने की इच्छा हुई। पेड़ पर कुछ बन्दर बैठे हुए थे । वे यात्रियों को आम लेने में बाधा डालने लगे । यात्रियों ने आम लेने का उपाय सोचा और बन्दरों की ओर पत्थर फेंकने लगे। इससे कुपित होकर बन्दरों आम के फल तोड़कर यात्रियों को मारने के लिए उन पर फैंकना आरम्भ कर दिया। इस प्रकार यात्रियों का अपना प्रयोजन सिद्ध हो गया । आम प्राप्त करने की यह यात्रियों की औत्पत्तिकी बुद्धि थी । 2. वैनयिकी - वंदनीय पुरुषों के प्रति विनय, वैयावृत्त्य, आराधना आदि से जो बुद्धि उत्पन्न होती है या बुद्धि में विशेषता आती है, उसे 'वैनेयिकी बुद्धि' कहते हैं अथवा जो बुद्धि धर्म, अर्थ, काम तीनों पुरुषार्थ अथवा तीनों लोक का तलस्पर्शी ज्ञान रखने वाली है और विकट से विकट प्रसंग को भी पार कर सकती है तथा उभय- लोक सफल बना देती है, उसे 'वैनेविकी बुद्धि' कहते हैं। जिनभद्रगणि ने त्रिवर्ग के दो अर्थ किये हैं 1. धर्म, अर्थ और काम को प्राप्त करने का उपाय बताने वाले शास्त्र 2. अधोलोक, तिर्यक् लोक और ऊर्ध्वलोक प्ररूपणा करने वाले आगम । इसी प्रकार विनय के भी दो अर्थ किये हैं 1. गुरुसेवा 2. गुरु उपदेश शास्त्र हरिभद्र ने भी दोनों अर्थों का समर्थन किया है। 191. षट्खण्डागम, पु. 9 पृ. 82 192. आवश्यकनिर्युक्ति, गाथा 940-942, विशेषावश्यकभाष्य, स्वोपज्ञ गाथा 3601-3603 193. आचार्य महाप्रज्ञ, नंदी, पृ. 82, विशेषावश्यकभाष्य स्वोपज्ञ गाथा 3601-3603 194. मलयगिरि पृ. 144 196. विशेषावश्यकभाष्य, स्वोपज्ञ गाथा 3604-3607, हारिभद्रीय, पृ. 55 195. आवश्यक निर्युक्ति गाथा 943
SR No.009391
Book TitleVisheshavashyakbhashya ka Maldhari Hemchandrasuri Rachit Bruhadvrutti ke Aalok me Gyanmimansiya Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPavankumar Jain
PublisherJaynarayan Vyas Vishvavidyalay
Publication Year2014
Total Pages548
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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