________________ [132] विशेषावश्यकभाष्य एवं बृहवृत्ति के आलोक में ज्ञानमीमांसीय अध्ययन बाद ही शब्दों का उच्चारण करता है। जो सोचा जाता है, वह चिन्तनात्मक ज्ञान श्रुतानुसारी होने से भावश्रुत है। अतः द्रव्यश्रुत की उत्पत्ति भावश्रुत से हुई है, यह स्पष्ट होता है, क्योंकि जो जिससे उत्पन्न होता है, वह उसका कार्य होता है। जैसे कि कार्य रूप द्रव्यश्रुत के आधार पर उसके कारण भूत भावश्रुत का ज्ञान होता है, इसलिए द्रव्यश्रुत भावश्रुत का लक्षण सिद्ध होता है, अतः भावश्रुत से उत्पन्न शब्द (द्रव्यश्रुत) मतिपूर्वक नहीं होता है। विद्यानंद के अनुसार अर्हत् भगवान् तब बोलते हैं जब उनके द्रव्यश्रुत के स्थान पर केवलज्ञान होता है, मतिज्ञान नहीं। अतः यहाँ पर श्रुत का अर्थ भावश्रुत करके भावश्रुत के पूर्व मति है, ऐसा अर्थ समझाया है।108 नंदीसूत्र में 'ण मति सुयपुब्विया' इस नियम के लिए यह तर्क है कि मति के पहले भी श्रुत हो सकता है। क्योंकि शब्द श्रवण के बाद मति होती है। जिनभद्रगणि के अनुसार भी मति के पहले द्रव्यश्रुत हो सकता है। अतः नंदीसूत्र में जो निषेध किया है वह भावश्रुत के लिए है। अतः भावश्रुत के बाद मतिज्ञान नहीं होता है। शंका - प्रत्येक प्राणी में मति होने से उनमें 'मतिपुव्वं' यह कारण समान रूप से होने पर उनमें श्रुतज्ञान की समानता प्राप्त होती है। समाधान - अकलंक के अनुसार प्रत्येक प्राणी में मतिश्रुतज्ञानावरण के क्षयोपशम रूप इस बाह्यनिमित्त की भिन्नता के कारण उनमें श्रुत की समानता प्राप्त नहीं होती है।109 श्रुत की मतिपूर्वकता विषयक मलयगिरि का मन्तव्य - 1. पहले मतिज्ञान होता है, फिर श्रुतज्ञान यह कथन उपयोग की अपेक्षा से है। मति के उपयोग के बिना ग्रन्थानुसारी श्रुतज्ञान प्राप्त नहीं होता। लब्धि की अपेक्षा से सम्यक्त्व की प्राप्ति के समय मति और श्रुत को समकालीन कहा गया है। उपयोग की अपेक्षा से मति और श्रुत समकालीन नहीं हैं। 10 2. मति से श्रुत की प्राप्ति होती है। मतिपाटव (चतुर) के बिना श्रुत का वैभव उत्तरोत्तर प्राप्त नहीं होता। एक वस्तु का उत्कर्ष और अपकर्ष जिस दूसरे द्रव्य (वस्तु) के अधीन होता है, वही उसका कारण बनता है। जैसे घड़े का कारण मृत्पिण्ड है। मतिज्ञान से ही श्रुत को विशेष अवस्था प्राप्त होती है। बहुत सारे श्रुतग्रंथों में भी जिस श्रुतग्रंथ के विषय में स्मरण, ईहा, अपोह आदि मतिरूपों का प्रयोग होता है, वह ग्रन्थ अत्यन्त स्पष्ट हो जाता है, शेष उतने स्पष्ट नहीं होते।11। पं. कन्हैयालाल लोढ़ा का कथन है कि मतिज्ञानजन्य इन्द्रिय विषयों के भोगों के सुख (आसक्ति व प्रलोभन) रूप विकारों से मुक्त होने के लिए ही श्रुतज्ञान की आवश्यकता होती है। मतिज्ञान के प्रभाव से विषयसुख की लोलुपता नहीं हो तो श्रुतज्ञान की आवश्यकता ही नहीं रहती है, इसीलिए श्रुतज्ञान को मतिपूर्वक कहा है। 12 3. भेद (विभाग) की अपेक्षा से मति-श्रुत में अन्तर मतिज्ञान के अवग्रह, ईहा, आदि अठाईस और श्रतज्ञान के अक्षरश्रत, अनक्षरश्रत आदि चौदह भेद होते हैं। इस प्रकार दोनों के अवान्तर भेद भिन्न-भिन्न हैं, इसलिए मति और श्रुत अलग-अलग हैं। 13 107. विशेषावश्यकभाष्य, गाथा 111-113 एवं बृहद्वृत्ति 108. न च केवलपूर्वत्वात्सर्वज्ञवचनात्। श्रुतस्य मतिपूर्वत्वनियमोत्र विरुध्यते। तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक 1.20.7 109. मतिश्रुतावरणक्षयोपशमो बहुधा भिन्नः तद्भेदाद् बाह्यनिमित्तभेदाच्च श्रुतस्य प्रकर्षाप्रकर्षयोगो भवति मतिपूर्वकत्वाविशेषेऽपि। - तत्त्वार्थराजवार्तिक 1.20.9 110. मलयगिरि पृ. 70 111. मलयगिरि पृ. 141 112. बन्धतत्त्व, पृ.5 113. विशेषावश्यकभाष्य, गाथा 116