________________ तृतीय अध्याय - विशेषावश्यकभाष्य में मतिज्ञान [131] एवं फल भाव घटित नहीं होता है। अत: दोनों में हेतु एवं फल भाव घटित करने के लिए दोनों को भिन्न ही स्वीकार करना होगा।103 शंका - सम्यक् दृष्टि के मति-श्रुत ज्ञान और मिथ्यादृष्टि के मति-श्रुत अज्ञान एक साथ ही होते हैं, आगे-पीछे से नहीं। क्योंकि आगमानुसार उन दोनों का क्षयोपशम एकसाथ होता है, समकाल में उत्पन्न हुई वस्तु में पूर्व-पश्चात् के क्रम का निर्धारण नहीं होता है। क्योंकि मतिज्ञान के उत्पन्न होने पर उसके समकाल में ही श्रुतज्ञान उत्पन्न होना नहीं मानेंगे तो तब उस जीव के श्रुत अज्ञान का प्रसंग प्राप्त होगा, क्योंकि जीव में सदैव कम से कम दो ज्ञान अथवा अज्ञान का सद्भाव रहता है। अर्थात् जब तक जीव को मतिज्ञान के बाद श्रुतज्ञान की प्राप्ति नहीं होगी तब तक श्रुत अज्ञान का सद्भाव रहेगा जो कि आगमकारों को इष्ट नहीं है। अतः श्रुत ज्ञान मति पूर्वक नहीं हो सकता है। समाधान - यहाँ पर मति-श्रुत ज्ञान का जो समकाल कहा गया है, वह लब्धि की अपेक्षा से है, उपयोग की अपेक्षा से नहीं, क्योंकि एक समय में एक ही ज्ञान में उपयोग होता है। अतः 'मतिपूर्वक श्रुत' का अर्थ है कि श्रुत का उपयोग मतिपूर्वक होता है। अकलंक और मलयगिरि ने भी ऐसा कथन किया है तथा हरिभद्र ने यही तर्क मति अज्ञान और श्रुत अज्ञान के सद्भाव के समाधान में भी दिया है। द्रव्यश्रुतपूर्वक मति पूर्वपक्ष - मतिज्ञान भी दूसरे के शब्द सुनकर उत्पन्न होता है, अतः मतिज्ञान भी श्रुतपूर्वक हुआ, अतः दोनों में कोई भेद नहीं है। उत्तरपक्ष - जिनभद्रगणि कहते हैं कि दूसरे के शब्द को सुनकर जो मतिज्ञान उत्पन्न होता है, वह तो मात्र द्रव्यश्रुत से उत्पन्न है, भावश्रुत से नहीं। क्योंकि शब्द को द्रव्यश्रुत कहा गया है, लेकिन भावश्रुतपूर्वक मति उत्पन्न नहीं होता है। पूर्वपक्ष - क्या भावश्रुत के बाद मतिज्ञान सर्वथा प्रकार से नहीं होता है? उत्तरपक्ष - श्रुत के उपयोग का काल पूरा होने के बाद मतिज्ञान हो सकता है, अर्थात् अनुक्रम से होने में बाधा नहीं है, लेकिन भावश्रुत के बाद उसके कार्यरूप में मतिज्ञान नहीं होता है। इस लिए मति श्रुतपूर्वक नहीं होता है।106 भावश्रुत से उत्पन्न द्रव्यश्रुत मतिपूर्वक नहीं पूर्वपक्ष -भावश्रुत से उत्पन्न होने वाला शब्द (द्रव्यश्रुत) भी मतिपूर्वक है, क्योंकि बिना चिन्तन किये कोई बोलता नहीं है और क्या बोलना है, इस विषय का चिन्तन करना ही मतिज्ञान है। अत: द्रव्यश्रुत मतिपूर्वक होता है। उत्तरपक्ष - जिनभद्रगणि कहते हैं कि यह कथन उपयुक्त नहीं है, क्योंकि इस प्रकार तो भावश्रुत का सर्वथा अभाव हो जाएगा, क्योंकि वक्ता के बोलने की इच्छा सम्बन्धी उपयोग रूप ज्ञान को पूर्वपक्ष ने मतिरूप माना है। श्रोता का शब्द सुन कर जो अवग्रह आदि का ज्ञान होता है, वह मति है, उसके बाद भी भावश्रुत का होना नहीं माना जा सकता, क्योंकि ऐसा मानने पर तो 'मतिपूर्वक भावश्रुत' यह तो उत्तरपक्ष का मत है। द्रव्यश्रुत मतिज्ञान से होता है, और मतिज्ञान भी द्रव्यश्रुत से होता है, अतः इन दोनों में कोई अन्तर नहीं है। इसलिए उत्तरपक्ष के अनुसार यही मानना अधिक उपयुक्त है कि भावश्रुत मतिपूर्वक होता है और शब्दात्मक द्रव्यश्रुत तो उस भावश्रुत का लिंग अर्थात् साधन है। क्योंकि वक्ता पहले विचार करता है कि क्या बोलना है, उसके 103. विशेषावश्यकभाष्य, गाथा 105-106 एवं बृहवृत्ति 104. विशेषावश्यकभाष्य, गाथा 107-108 105. तत्त्वार्थराजवार्तिक 1.20.8, हारिभद्रीय पृ. 53, मलयगिरि पृ. 70, 141 106. विशेषावष्यकभाष्य, गाथा 109-110