________________ [120] विशेषावश्यकभाष्य एवं बृहवृत्ति के आलोक में ज्ञानमीमांसीय अध्ययन 5. छद्मस्थ का ज्ञान दर्शन पूर्वक ही होता है, यह एकान्त नहीं है। मति तो दर्शन पूर्वक ही होता है, मति के बाद जो श्रुत होता है उसके लिए दर्शन का होना आवश्यक नहीं है। सामान्यतया अविधदर्शन पूर्वक ही अवधिज्ञान होता है, किन्तु एक ज्ञान से सीधा दूसरे ज्ञान में चला जाये ऐसा भी हो सकता है। जैसे श्रुतज्ञान से सीधा अवधिज्ञान में चला जाये। अत: निश्चित कुछ नहीं कह सकते हैं। विभंगज्ञान में उपयोग था। फिर सम्यक्त्व प्राप्त हुई तो विभंगज्ञान, अविधज्ञान में परिवर्तित हो गया। उस समय दर्शन नहीं भी हो, ऐसा समझा जाता है। मन:पर्यवज्ञान के पहले दर्शन नहीं होता है। इसलिये किसी भी ज्ञान के बाद तुरन्त मनःपर्यव होने में बाधा नहीं है। अत: छद्मस्थों का ज्ञान दर्शन पूर्वक ही हो ऐसा नहीं है। 6. ज्ञान का विषय त्रैकालिक होता है। किसी को शंका हो सकती है कि ज्ञान तीनों काल की पर्यायों को कैसे से जानता है, तो इसका समाधान प्रवचनसार के टीकाकार ने निम्न प्रकार से किया है - (अ) छद्मस्थ जैसे वर्तमान वस्तु का चिंतन करते हुए ज्ञेयाकार का अवलम्बन लेकर जानता है, उसी प्रकार भूत और भविष्यत् वस्तु का चिंतन करते हुए भी ज्ञेयाकार का अवलम्बन लेकर जानता है। (ब) ज्ञान चित्रपट के समान है। जैसे चित्रपट में अतीत अनागत और वर्तमान वस्तुओं का साक्षात् एक क्षण में ही भास होता है, उसी प्रकार ज्ञान रूपी भित्ति में भी अतीत, अनागत और वर्तमान पर्यायों के ज्ञेयाकार साक्षात् एक क्षण में ही भासित होते हैं। (स) सर्व ज्ञेयाकारों की तात्कालिकता अविरुद्ध है। जैसे चित्रपट में नष्ट व अनुत्पन्न वस्तुओं के चित्र वर्तमान रूप ही हैं, इसी प्रकार ज्ञान में अतीत और अनागत पर्यायों के ज्ञेयाकार वर्तमान रूप ही है 7 287. प्रवचसार, तत्वदीपिका, टीका गाथा 37 पृ. 64