________________ द्वितीय अध्याय - ज्ञानमीमांसा : सामान्य परिचय [119] - ज्ञान, दर्शन, सुख, वीर्य, चेतनत्व, अमूर्तत्व। उपयोग आत्मा का लक्षण है। आत्मा की सिद्धि के लिए जैनाचार्यों ने अनेक हेतु दिए हैं, जैसेकि जीव के अस्तित्व की सिद्धि जीव शब्द से ही होती है, जीव है या नहीं, यह चिंतन मात्र ही जीव की सत्ता को सिद्ध करता है तथा शरीर में स्थित जो यह सोचता है कि मैं शरीर नहीं हूँ, वही जीव है। जैन दर्शन में आत्मा को प्रदेशों से युक्त माना है। यह शरीर प्रमाण होती है। इसमें संकोच विस्तार का गुण पाया जाता है। जैन दर्शन आत्मा को सर्वव्यापक तथा कूटस्थ नित्य नहीं मानता है। आत्मा उत्पाद, ध्रौव्य और व्यय गुण वाली होती है। इसके बाद श्रुतज्ञान कैसे ग्रहण करना चाहिए, इसके ग्रहण की विधि क्या है, श्रुतज्ञान को ग्रहण करने वाले की योग्यता क्या है? इत्यादि का विस्तार से उल्लेख किया गया है। जैनदर्शन में वर्णित ज्ञान के स्वरूप की अन्य दर्शनों के साथ तुलना करने पर ज्ञात होता है कि न्याय-वैशेषिक दार्शनिक ज्ञान को अस्वसंवेदी मानते हैं, जबकि जैन दर्शन में ज्ञान को स्वसंवेदी माना गया है। योगदर्शन में मान्य अतीत-अनागत ज्ञान और जैनदर्शन मान्य अवधिज्ञान आदि ज्ञान भूत भविष्य की बात जानते हैं। बौद्धदर्शन में भी ऐन्द्रियक और अतीन्द्रिय ज्ञान दर्शन के लिए जैनदर्शन के समान 'जाणइ' और 'पासइ' क्रिया का प्रयोग हुआ है। सांख्यदर्शन में प्रत्यक्ष के दो भेद किये हैं - निर्विकल्प और सविकल्प जो जैन दर्शन द्वारा मान्य अनाकार (दर्शन) और साकार (ज्ञान) के तुल्य है। भाट्टमीमांसक दार्शनिकों के अनुसार ज्ञान स्वप्रकाशक नहीं होता है, जबकि जैन दार्शनिकों के अनुसार ज्ञान स्व-पर प्रकाशक होता है। ज्ञान के सम्बन्ध में कुछ विशिष्ट बिन्दु हैं - 1 पांचो ज्ञानों में एक श्रुतज्ञान ही वचन का विषय बनता है। जो अनुभूति होती है,वह मतिज्ञान है। मतिज्ञान का कुछ हिस्सा श्रुत बनकर वचन का विषय बन जाता है। शेष जो वचन का विषय नहीं बनता है, उसे वचन अगोचर कहा जाता है। 2. उत्तराध्यन सूत्र में पहले श्रुतज्ञान और बाद में मतिज्ञान का जबकि नन्दी में पहले मतिज्ञान और बाद में श्रुतज्ञान का उल्लेख है। नन्दी आदि में जो पहले मतिज्ञान को बताया है, वही क्रम आगमकारों को इष्ट है तथा उत्तराध्ययनसूत्र अध्ययन 28 में पहले श्रुतज्ञान का उल्लेख हुआ है वह गाथा छन्द की पूर्ति के कारण किया हो, ऐसा प्रतीत होता है। 3. ज्ञानावरणीय कर्म के क्षयोपशम के कारण आत्मा में उत्पन्न ज्ञानलब्धि की अपेक्षा ही एक जीव में एक समय में, एक से अधिक ज्ञान पाये जाते हैं। परन्तु उपयोग की अपेक्षा से एक जीव में एक समय में एक से अधिक ज्ञान का या दर्शन का उपयोग नहीं पाया जाता है। 4. पांचों इन्द्रियों के सामान्य ज्ञान को दर्शन कहते हैं। इस सामान्य ज्ञान को मति-श्रुत के समान एक साथ ग्रहण नहीं करके चक्षुदर्शन और अचक्षुदर्शन में विभक्त किया गया है, क्योंकि लोक में देखने का व्यवहार नेत्रों द्वारा ही होता है, शेष इन्द्रियों द्वारा नहीं। अतः आँख से होने वाले सामान्य बोध को 'चक्षुदर्शन' तथा शेष चार इन्द्रियों और मन के द्वारा देखने की क्रिया नहीं होने से उन सब का एक अचक्षुदर्शन में ग्रहण कर लिया है।