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________________ द्वितीय अध्याय - ज्ञानमीमांसा : सामान्य परिचय [111] अनुसार केवल इन्द्रियों के द्वारा ही विश्वास योग्य अथवा असंदिग्ध ज्ञान हो सकता है। इन्द्रिय ज्ञान ही एकमात्र यथार्थ ज्ञान है। इस प्रकार इन्होंने अन्य दर्शनों में अनुमान आदि प्रमाणों का खंडन किया है। लेकिन चार्वाक ने स्वयं अन्य मतों का खण्डन करने के लिए अनुमान का सहारा लिया है। न्याय-वैशेषिक दर्शन 1. न्यायदर्शन में चार प्रमाण स्वीकार किए गए हैं - प्रत्यक्ष, अनुमान उपमान और शब्द। जबकि वैशेषिकों को ज्ञान रूप में दो प्रमाण मान्य हैं - प्रत्यक्ष और अनुमान। 2. वैशेषिक दर्शन में ज्ञान को बुद्धि में अंतर्भूत किया है। पुनः बुद्धि के दो भेद हैं - विद्या (प्रमा) और अविद्या (अप्रमा)। प्रमा यथार्थ ज्ञान को कहते हैं। प्रमा के चार भेद किये हैं - प्रत्यक्ष, अनुमान, स्मृति और आर्षज्ञान। इसके अलावा शेष ज्ञानों को अप्रमा कहते हैं। अविद्या (अप्रमा) के भी चार प्रकार हैं - संशय, विपर्यय, अनध्यवसाय और स्वप्न। इन चारों से यथार्थ ज्ञान नहीं होता है। ज्ञान तभी सत्य होता है जब वह अपने विषय के यथार्थरूप को प्रकाशित करता है। यथार्थ-ज्ञान से सफलता मिलती है तथा मिथ्या ज्ञान से विफलता मिलती है।62 इस प्रकार विद्या और अविद्या की तुलना जैनदर्शन में मान्य सम्यक्ज्ञान और मिथ्या ज्ञान के साथ कर सकते हैं। 3. न्याय-वैशेषिक भी जैन तार्किकों के समान स्मृतिज्ञान को प्रत्यक्ष से भिन्न स्वीकार करते हैं, लेकिन उन्होंने स्मृति को अप्रमाण माना है, जबकि जैन दार्शनिकों ने स्मृति को प्रमाण माना हैं।63 जैन दार्शनिक अनध्यवसाय को भी अप्रमाण मानते हैं। 5. न्याय और वैशेषिक ईश्वरवादी दर्शन हैं। वे ईश्वर को सर्वज्ञ मानते हैं। कालक्रम से उनमें योगि-प्रत्यक्ष की अवधारणा प्रविष्ट हुई है, पर जैन दर्शन में केवलज्ञान या सर्वज्ञत्व मोक्ष की अनिवार्य शर्त है। न्याय और वैशेषिक का मत है- मुक्त अवस्था में योगिप्रत्यक्ष नहीं रहता। ईश्वर का ज्ञान नित्य है और योगिप्रत्यक्ष अनित्य / 264 6. न्याय-वैशेषिक आदि दर्शनों में ज्ञान आत्मा के गुण के रूप में सम्मत नहीं है, इसलिए उन्हें मनुष्य की सर्वज्ञता का सिद्धान्त मान्य नहीं है। 7. न्यायवैशेषिक दर्शन में 'ऋते ज्ञानान्न मुक्तिः ' कहकर ज्ञान को मोक्ष का अनिवार्य हेतु बताया है और जैनदर्शन भी मोक्ष प्राप्ति में केवलज्ञान की अनिवार्यता स्वीकार करता है, लेकिन अन्तर है यह है कि, जैनदर्शन में मुक्तात्मा में भी केवलज्ञान स्वीकार किया गया है, जबकि न्यायवैशेषिक दर्शन मुक्तात्मा में ज्ञान को स्वीकार नहीं करते हैं, क्योंकि मुक्तात्मा ज्ञानादि विशेष गुणों से दूर होता है। अर्थ का सन्निकर्ष नियम से होता है।266 जबकि जैन दर्शन के अनुसार चक्षु के अलावा चार इन्द्रियाँ ही प्राप्यकारी हैं। 9. न्याय-वैशेषिक दर्शन वाले ज्ञान को अस्वसंवेदी मानते हैं, जबकि जैन दर्शन में ज्ञान को स्वसंवेदी माना गया है।67 262. द्रष्यव्य - प्रशस्तपाद भाष्य, बुद्धि प्रकरण 264. न्यायमंजरी, पेज 508 266. न्यायसूत्र 1.1.4 263. षड्दर्शन समुच्चय, पृ. 398 265. व्योमवती, पृ. 638 267. षड्दर्शन समुच्चय, पृ. 397
SR No.009391
Book TitleVisheshavashyakbhashya ka Maldhari Hemchandrasuri Rachit Bruhadvrutti ke Aalok me Gyanmimansiya Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPavankumar Jain
PublisherJaynarayan Vyas Vishvavidyalay
Publication Year2014
Total Pages548
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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