________________ [98] विशेषावश्यकभाष्य एवं बृहद्वृत्ति के आलोक में ज्ञानमीमांसीय अध्ययन विशेषावश्यकभाष्य के अनुसार मन की अप्राप्यकारिता मन का वस्तु के साथ सीधा सम्बन्ध नहीं होता है इसलिए मन अप्राप्यकारी है। यदि मन को प्राप्यकारी माना जाये तो अग्नि का चिन्तन करने पर हमें जलन का अनुभव और चंदन का चिंतन करने पर शीतलता का अनुभव होना चाहिए, लेकिन ऐसा नहीं होता है। इसलिए मन अप्राप्यकारी है।197 जिनभद्रगणि ने इस सम्बन्ध में विस्तार से वर्णन करते हुए मन के द्वारा व्यंजनावग्रह होता है, इस मान्यता का भी खण्डन किया है।198 1. पूर्वपक्ष - जागृत अथवा स्वप्नावस्था में मन ज्ञेय पदार्थ से जुड़ता है, यह जगत्प्रसिद्ध है, अतः इससे मन की प्राप्यकारिता ही सिद्ध होती है। उत्तरपक्ष - जिनभद्रगणि कहते हैं कि मन भी चक्षु के समान अप्राप्यकारी है, क्योंकि उसमें भी विषयकृत उपघात और अनुग्रह नहीं होता है। यदि मन प्राप्यकारी होता तो जल, अग्नि आदि के चिंतन से उपघात और अनुग्रह दोनों ही होने चाहिए, लेकिन नहीं होते हैं। इसलिए मन अप्राप्यकारी है। मन दो प्रकार का होता है - द्रव्यमन और भावमन। भावमन जीव के समस्त शरीर में व्याप्त होकर रहता है, उसका देह से बाहर निकलना युक्तियुक्त नहीं है। क्योंकि आत्मा शरीरव्यापी ही है, सर्वव्यापी नहीं। इसलिए आत्मा से अभिन्न भावमन का शरीर से बाहर निकलना संगत नहीं ठहरता है।199 2. पूर्वपक्ष - भावमन का बहिर्गमन नहीं होने से वह अप्राप्यकारी है तो क्या हुआ, द्रव्यमन तो अपने विषय देश तक जाता है, अत: वह प्राप्यकारी है। उत्तरपक्ष - जिनभद्रगणि कहते हैं कि द्रव्यमन तो अचेतन रूप होता है, इसलिए वह ज्ञाता नहीं है। वह अन्यत्र देश में चला जाए तो उससे कोई लाभ नहीं है। 3. पूर्वपक्ष - द्रव्यमन ज्ञान का साधन (करण) है और उसी से तो जीव को ज्ञान होता है। जैसेकि दीपक वस्तु को प्रकाशित करने में साधन (करण) है, वैसे ही पदार्थ के ज्ञान में द्रव्यमन साधन होने से प्राप्यकारी है। उत्तरपक्ष - जिनभद्रगणि कहते हैं कि जीव शरीर में स्थित द्रव्यमन की सहायता से जानता है, पदार्थ ज्ञान में आत्मा के लिए द्रव्यमन करण है, इसे तो हम भी स्वीकार करते हैं। लेकिन करण दो प्रकार के होते हैं - अन्तःकरण (जो शरीर में रहता है) और बाह्यकरण (जो शरीर के बाहर रहता है)। द्रव्यमन अन्त:करण है और जो अन्त:करण होता है, उसे शरीरस्थ रखते हुए ही जीव अपने विषय को उसी प्रकार जान लेता है जैसेकि स्पर्शन इन्द्रिय के माध्यम से बाह्य स्थित कमल-नाल आदि के स्पर्श का अनुभव द्रव्यमन कर सकता है। जीव अपने विषय को उसी प्रकार जानता है, जिस प्रकार स्पर्शनेन्द्रिय जानती है। अत: अन्त:करण के कारण ही द्रव्यमन स्पर्शनेन्द्रिय के समान बाहर नहीं निकलता है / 200 4. पूर्वपक्ष - द्रव्यमन और भावमन का बहिर्गमन नहीं होता ऐसा स्वीकार करने पर भी मन में विशिष्ट चिंता आदि से दुर्बलता (शरीर का क्षीण होना), हृदय घात आदि रोग होते हैं, इनसे मन का उपघात स्पष्ट है। इसी प्रकार हर्ष आदि के समय में अनुकूल वेदन से मन का अनुग्रह होना भी स्पष्ट है, अत: मन भी अनुग्रह और उपधात से युक्त है, अत: वह भी प्राप्यकारी ही सिद्ध होता है। उत्तरपक्ष - जिनभद्रगणि कहते हैं कि जीवात्मा द्रव्यमन के रूप में परिणत अनिष्ट पुद्गलों के द्वारा शोकाकुल होकर शारीरिक दुबर्लता को उत्पन्न करके हृदय में रुकी हुई वायुप्रकोप आदि से (स्वंय 197. अभिधानराजेन्द्रकोष, भाग 6, पृ. 76-83 198. विशेषावश्यकभाष्य 213-244 199, विशेषावश्यकभाष्य, गाथा 213-216 200. विशेषावश्यकभाष्य, गाथा 217-218