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की तीसरी, दसवीं, सत्रहवीं और चौबीसवीं मात्रा स्थान पर लघु वर्ण होना चाहिए । अंत में रगण (SIS) आ जाने से यह श्रवण सुखद बन जाता है :
वीर :
।। IS ।। ।। ।ऽ।। ऽ Iऽ ।।ऽ। ऽ मिल रहे जन-जन परस्पर हो रहा समवाय है । एक चिंतन एक चिंता, एक ही अध्याय है ।
ऽ ।।। ऽ ।। ISS ऽ । ││ SS IS कालकृत संस्कृति समस्या, बीज यदि बोती नहीं । भूमि चिंतन-मनन की यह, उर्वरा होती नहीं ।
| | | SIIS IS
ऽ । ऽ।। ऽ। S S कष्ट केवल कष्ट ही हो, मनुज जी सकता नहीं । अग्निताप अभाव में, मृद् जनित घट पकता नहीं । ।
--पृष्ठ-14.
SI S SS I
SSSIS S SI S
कष्ट से उद्भूत
ये, रश्मियाँ आलोक की ।
रति तिमिर को जन्म देती, मति विकृत परलोक की ।
(14+12=26)
72
(14+12=26)
ऋ. पृ. 15.
(16+15=31 )
।
ऋ. पृ. 13.
16 और 15 मात्राओं के विश्राम से इसमें प्रत्येक चरण में 31 मात्राएँ होती हैं। अंत में गुरू लघु होता है। इसे 'आल्हा' भी कहते हैं । SI ।ऽ ऽ ।। ।।ऽ ऽ ऽ। ।ऽ ।।ऽ IS मुक्त रहे जो निज ममता से जाग उठा उनमे ममकार कल्पवृक्ष पर लगे जताने, सब अपना-अपना अधिकार | स्वत्व हरण छीना झपटी का, अतिक्रमण का वेग बढ़ा । शांति भंग का, मौन भंग का, सब पर जैसे 555 S ऽ।। ।।।। ऽ SS SS ।।ऽ। (16+15=31 ) आवेशों का शैशव बचपन की बेला में है अतिचार । बढ़े नहीं, इसका चिंतन हो, वर्तमान का हो प्रतिकार । लज्जा के अनुरूप प्रवर्तित होता समुचित दंड - विधान | युग का अपना-अपना मानस, दंड स्वयं मानस - विज्ञान |
नशा चढ़ा ।। ऋ. पू. - 13.
ऋ. पृ. 73.