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उद्घाटित नव द्वार, पंजर में बैठा विहग,
अद्भुत रस साकार, विस्मय नहीं प्रयाण में।
ऋ.पृ.-23.
यहां नवद्वार शरीर के वे स्थान जहां से प्राण का उत्सर्ग होता है। विहग-प्राण, अद्भुत रस-आत्मसाक्षात्कार, आत्मानन्द, प्रयाण-निर्वाण, मृत्यु ।
साधना में भाववृत्तियों का महत्वपूर्ण स्थान होता है। भाववृत्तियां जितना ही अंतर्मुखी होती है, चेतना में, ज्ञान में उतना ही निखार आता है, - यही नहीं धरती और अंबर की दूरी भी समाप्त हो जाती है, रहस्य का आवरण उठ जाता है, जैसे :
अन्तर्मानस की उंगली से, हत्-तंत्री का तार। झंकृत हो कर देता अभिनव, मंजुलतम झंकार। धरती अम्बर सहज समीप, जलता है जब चिन्मय दीप। ऋ.पृ.-91.
यहाँ धरती-लौकिक जगत, अम्बर-अलौकिक जगत (ब्रह्मरंध). चिन्मय-दीप ज्ञान के आलोक के प्रतीक के रूप में प्रयुक्त हुआ है। साधक द्वारा साधना की संपूर्ण श्रेणियों को पार कर लेने के पश्चात् चिन्मयानंद की अनुभूति होती है। कबीर ने 'सहस्त्रार' ब्रह्मरंध्र, सुन्न-महल, सुरति महल, गगन मंडल का प्रयोग पर्याय रूप में ही किया है, जिसकी स्थिति मस्तक में ही है। मस्तिष्क में ज्ञान का चिन्मय-दीप जल जाने पर समत्व दृष्टि के विकास के साथ लोक (धरती) और परलोक (अंबर) का भेद मिट जाता है, लौकिक जगत से अलौकिक जगत में प्रवेश का मार्ग प्रशस्त हो जाता है।
इस प्रकार ऋषभायण महाकाव्य में प्रतीकों की गंगा-जमुना धारा प्रवाहित
हुई है। परम्परागत एवं नवीन प्रतीक कवि के अनुभूति सत्य को व्यक्त करते हुए, भाषा के प्रभाव को धारदार बनाते हैं। प्रतीक उक्ति वैचित्र्य के साधन हैं जिससे भावों में चमत्कारिक रूप से वृद्धि होती है। प्रतीकों का विपुल संसार सहजता से महाकाव्य में देखा जा सकता है।