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चक्रवर्ती चक्रवर्ती, भूप आखिर भूप है। सिंधु का विस्तार अपना, कूप आखिर कूप है। ऋ.पृ.-239
जल में तरलता है, वात्सल्य में ममता। प्राकारान्तर से ममता भी तरल होती है। उसका स्पर्श कोमल एवं मन में विनय को जन्म देने वाला होता है यदि सलिल से लताएँ, वनस्पतियाँ पल्लवित होती हैं, तो वात्सल्य से श्रद्धायुत प्रेम अथवा मानवता। बाहुबली से युद्ध का कारण स्वयं को मानते हुए भरत सोचते हैं कि :
वात्सल्य सलिल की धारा यदि बह जाती। तो विनयबेल का अभिसिंचन कर पाती।।
ऋ.पृ.-245.
यहाँ 'सलिल' का प्रयोग 'स्नेह' तथा 'बेल' का प्रयोग खुशहाल जीवन के प्रतीक के रूप में किया गया है।
महाशक्ति के रूप में 'रवि' एवं 'उडुपति' प्रतीक का नवीन प्रयोग प्रशंसनीय है। यह प्रतीक बाहुबली से युद्ध के संदर्भ में भरत के अंतर्द्वन्द्व के साथ उभरता है और परिणाम के रूप में विनाश की ओर संकेत करता है :--
संघर्ष परस्पर रवि उडुपति में होगा, नक्षत्र और ग्रह तारा का क्या होगा? नभ की शोभा क्या अविकल रह पाएगी, शस्त्रों की ज्वाला माला बन पाएगी।
ऋ.पृ.-248.
यहाँ 'रवि' और 'उडुपति' के अतिरिक्त नक्षत्र, ग्रह और 'नभ' भी अपना जटिल प्रतीकात्मक अर्थ देते हैं। यहां नक्षत्र ग्रह के रूप में सामान्य जन' एवं 'नम' के प्रतीक के रूप में 'पृथ्वी' का अर्थ ग्रहण करना समीचीन प्रतीत होता है। जिसका स्पष्ट आशय है कि जब दो महाशक्तियाँ (भरत और बाहुबली) आपस में टकराएँगी तब जन धन की हानि के साथ संपूर्ण पृथ्वी पर हिंसा एवं अशांति व्याप्त हो जाएगी।
'रवि', 'तेजस' अथवा 'ज्ञान' का भी प्रतीक हैं। साधनात्मक स्तर पर ज्ञान का प्रादुर्भाव होते ही जीवन की संपूर्ण आसक्तियाँ स्वमेव तिरोहित हो जाती हैं :
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