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(11)
व्यतिरेक :
जहाँ उपमान की अपेक्षा उपमेय की श्रेष्ठता व्यंजित हो, वहाँ व्यतिरेक अलंकार होता है। जैसे :
1) सुरपथ रवियुत मुदिर विहीन, फिर भी भूतल सम्मुख दीन।
सूर्य के आलोक से आलोकित बादल विहीन 'सुरपथ' (उपमान) को 'भूतल' उपमेय के सम्मुख दीन बताकर उपमान की न्यूनता व्यंजित की गयी है।
2) दूत का जिज्ञासितं सुन, गांव के जन ने कहा,
बाहुबलि का तेज अतुलित, सूर्य यह पीछे रहा। ऋ.पृ.-231.
यहाँ 'बाहुबलि' (उपमेय) के तेज के सम्मुख 'सूर्य' (उपमान) को पीछे बताकर उसकी न्यूनता दर्शित की गयी है। (12) स्वाभावोक्ति :
जहाँ किसी वस्तु का स्वाभाविक वर्णन होता है, वहाँ स्वाभावोक्ति अलंकार होता है, जैसे :
जेठ मास की तपी दुपहरी, तप्त धूलि धरती भी तप्त। तप्त पवन का तपा हुआ तन, मन कैसे हो तदा अतप्त। ऋ.पृ.-198. यहाँ जेठ माह की ताप का स्वाभाविक वर्णन किया गया है।
'ऋषभायण' में अलंकारों की छटा अनुपम है। उनके द्वारा प्रयुक्त अलंकार भाव, भाषा एवं लय का संस्कार करते हुए प्रतीत होते हैं। अलंकारों का सहज प्रयोग काव्य सौंदर्य में वाहक के रूप में दृष्टिगत होता है। काव्य में कहीं भी अलंकार चमत्कार प्रदर्शन का कारण नहीं बना है,उनका सहज प्रयोग भाव
उत्कर्ष का कारण अवश्य बना है।
> प्रतीक
प्रतीक शब्द की व्युत्पत्ति प्रति+इण (गतो) से मानी गयी है, जिसके अनुसार प्रतीक का अर्थ वस्तु है, जो अपनी मूल वस्तु में पहुँच सके अथवा वह चिन्ह जो मूल का परिचायक हो।(2) प्रतीक की आधुनिक अवधारणा के अनुसार प्रस्तुत
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