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पाश्चात्य नाट्य शास्त्र में नायक के लिए ऐसा कोई बंधन नहीं है, वह कोई भी व्यक्ति हो सकता है। उसके चरित्र में धीरे-धीरे स्वतः ही मानवीय गुणों का विकास होता है। वह भारतीय नायकों की भाँति अपराजेय नहीं होता।
नाट्य शास्त्र के प्रणेता आचार्य भरत ने नायक के चार भेद माने हैं - धीर ललित, धीर प्रशस्त, धीरोदात्त तथा धीरोद्धता। धीरोद्धत नायक संस्कृत नाटकों में प्रायः सर्वश्रेष्ठ माना गया है। महानता, गंभीरता, स्वभाव की स्थिरता, ऊर्जस्विता, क्षमावत्ता, महाप्राणत्व और आत्मप्रशंसा से विरति आदि इसके प्रमुख गुण है। विनम्रता और निश्चय की दृढ़ता इसके स्वभाव की अनिवार्यता है। आचार्य धनंजय ने 'दशरूपक' में धीरोदात्त नायक के विशिष्ट गणों के रूप में निम्नलिखित
श्लोक लिखा है :
महासत्वो अति गंभीर, क्षमावान विकत्थनः। स्थिरो निगूढ़ा हँकारो धीरोदात्तो दृढ़ व्रतः।।
'ऋषभायण' महाकाव्य के महानायक ऋषभदेव हैं। कथा का संपूर्ण विकास विविध घटनाओं, दृश्यों के माध्यम से उनमें ही अन्तर्भूत होता है। यौगोलिक समाज के विकास के वे आधार स्तम्भ तथा निस्पृह भाव से राज्य व्यवस्था के कुशल शिल्पी एवं मार्गदर्शक हैं। महाकाव्य में उनका व्यक्तित्व निरहंकारी, त्यागी, संयमी, आत्मलोक के सजग प्रहरी तथा भरत बाहुबली, माँ मरूदेवा, ब्राह्मी, सुंदरी तथा अट्ठानवे पुत्रों को आत्मा के चिन्मय स्वरूप का साक्षात्कार कराने वाले योगी हैं। उनके अलौकिक व्यक्तित्व की संपूर्ण छाप ऋषभायण महाकाव्य में आसानी से देखी जा सकती है।
ऋषभायण में ऋषभ के चरित्र में नायक की तुलना में महानायकत्व की आभा झलकती है। इनका तटस्थ जीवन दर्शन एक मार्ग प्रदर्शक के रूप में अभिव्यक्त हुआ हैं। संपूर्ण कथा इनके इर्द-गिर्द ही घूमती है। राग, द्वेष, पूर्वाग्रह जैसा कोई भी भाव इनमें दिखाई नहीं देता। हर कोण से इनका समुचित जीवन संयमपथ का उदाहरण है - पुत्रों के युद्ध से इनमें कहीं भी रंचमात्र विचलन की स्थिति नहीं बनती, बल्कि पुत्रों की दिग्भ्रमित, उद्भ्रान्त मन को शांत कर उनके सच्चे जीवन पथ का प्रदर्शन करते हैं।
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