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कम ही हुई है। ऋषभायण में भी कवि द्वारा पुष्पों की गंधों का ही अधिकतर बिम्बांकन किया गया है, यहाँ इतर गंधों का अभाव सा दिखाई देता हैं। किन्तु यह अभाव कहीं भी खटकता नहीं, अपितु भाव सौंदर्य का वाहक ही बनता है। ऐन्द्रिक बिम्बों के अंतर्गत एकल, संश्लिष्ट, गतिक और स्थिर बिम्बों का वैविध्यपूर्ण बिम्बाकंन भी कवि ने सफलतापूर्वक किया है।
भाव बिम्ब के आधार हैं। बिना भाव के बिम्ब की कल्पना नहीं की जा सकती है, और बिना बिम्ब के भाव का सम्मूर्त्तन नहीं हो सकता। मेरी समझ से भाव और बिम्ब एक दूसरे के पूरक हैं। ऋषभायण में रसवत् धारणाओं के आधार पर स्थायी भाव एवं संचारी भाव से संबंधित बिम्ब निर्मित किये गये हैं। स्थायी भावों के अंतर्गत भक्ति, निर्वेद, वात्सल्य, शोक, विस्मय, उत्साह, क्रोध, भय, जुगुप्सा व रति विषयक बिम्ब आरेखित किये गये हैं, किंतु सर्वाधिक बिम्ब भक्ति, निर्वेद, वात्सल्य
और उत्साह भाव से सम्बन्धित हैं। शोक, विस्मय, क्रोध, भय से सम्बन्धित भी बहुआयामी बिम्ब प्रयुक्त हुए हैं। किंतु 'जुगुप्सा' और 'रति' से संबंधित अत्यल्प बिम्बों की ही रचना हुयी है। संचारी भावों में मद, शंका, मोह, स्पृहा, हर्ष, प्रमाद, धन्यता, ईर्ष्या, श्रम एवं अन्य भावों से सम्बन्धित बिम्ब भी प्रसंगानुकूल निर्मित किये गये हैं, जो भावों का सहज में ही सम्मूर्तन करते हुए प्रतीत होते हैं।
कवि मूर्त्तामूर्त बिम्बों की उपस्थापना में भी सफल रहा है। सूक्ष्म से सूक्ष्म अथवा अमूर्त से अमूर्त भावों को गोचरता प्रदान करना सरल कार्य नहीं है। किंतु आचार्य महाप्रज्ञ जैसे सधे हुए साधक कवि के लिए यह कार्य कोई कठिन नहीं। इस दिशा में भी उन्होंने समान रूप से लेखनी चलाई है और मनवांछित बिम्बों को गढा
अभिधा, लक्षणा, व्यंजना, लोकोक्ति, मुहावरे, प्रतीक, अलंकार, मानवीकरण आदि अभिव्यक्ति के सशक्त माध्यम हैं। आचार्य महाप्रज्ञ ने बिम्ब निर्माण में उक्त शैलीगत साधनों का अवलम्बन लिया है। हलांकि कवि की भाषा यान्त्रिक है, किंतु बिम्ब ग्रहण में उसकी यान्त्रिकता कहीं भी बांधक नहीं बनती। लोकोक्ति और मुहावरे भाषा के श्रृंगार हैं, इनके प्रयोग से भाषा की व्यंजकता बढ़ जाती है। सादृश्यमूलक अलंकारों में उपमान बिम्ब सृजन की दृष्टि से अत्यधिक महत्वपूर्ण होते हैं।
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